Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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त्रैलोक्य का स्वरूपः
प्रथम जिनेन्द्र (भगवान ऋषभदेव) हारा कथित सर्वाकाश अनन्तानन्त रूप में प्रकाशित है। उसके मध्य में महान तीन लोक हैं, जो असंख्य प्रदेशों से। विशिष्ट हैं, अकृत्रिम हैं, स्वत: सिद्ध हैं और प्रसिद्ध हैं, न कोई उसका हरण करता है और न निर्माण। धनवातवलय, तनुवातवलय एवं घनोदधिवातलय पर आधारित हैं। सम्पूर्ण लोक जीवाजीवों से भरा है। उन सभी का पिण्ड जिन भगवान ने बीस-बीस सहस्र योजन प्रमाण ऊपर -अपर कहा है। ऊर्ध्व प्रदेश में क्रमश: होन-हीन हैं तथा लोक के शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमश: हीनहनि हीन हैं तथा लोक के शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमश: दो कोरी, एक कोस एवं शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमश: दो कोस, एक कोस एवं पन्द्रह सौ पचहत्तर (1575) धनुष प्रमाण है।
यह लोक बौदह रजू प्रमाण ऊँचा है और इसका समस्त क्षेत्रफल 343 घन राज़ है। उमी के मध्य सुप्रसिद्ध असगाड़ी है, वह सर्वत्र त्रय जीवों के भरी हुई है। दुःखनाशक भगः।। 117 के बाहर के क्षेत्र को पाँच प्रकार के स्थावरों से मग हा कहा है। मारणातक मुगात एवं उपपाद-समुद्घात करते समय इन तीनोंकों में उनका गगन गाड़ी के बाहर भी अविरुद्ध हैं। ___ लोक के मूलभाग में उसका प्रमाण पूर्व से पश्चिम में सात राजू कहा गया है
और फिर मध्यलोक में एक राजू, ऊर्ध्व- लोक में ऊपर जाकर पाँच राजू और पुनः एक राज विभक्त है। दक्षिण और उत्तर दिशा में लोक का आयाम सर्वत्र निरन्तर सात राजू जानना चाहिए।195
दस, सोलह, बाईस, अट्ठाईस, चौंतीस, चालीस एवं छयालीस रज्जू अर्थात् कुल 196 रज्ज प्रमाण सात (नरक) पृथ्वियों का घनफल जानना चाहिए।196
इस प्रकार सातों नरकों का प्रमाण एक सौ छियानवे रज्जू है। एक सौ सैंतालीस रज्जू ऊर्ध्व लोक का प्रमाण जानना चाहिए। इस प्रकार गणना करके, ये 343 रज्जू कहे गये हैं।197
195 रइधू : पास. 5.14 196 वही, घत्ता-85 197 वही 5:15
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