Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 237
________________ असुरोद्भव, मानसिक एवं कायोद्भव वेदनाओं से भयभीत हुए नारकी परस्पर में एक दूसरे का हनन करते हैं और वहाँ निमिष भर के लिए भी उन्हें सुख प्राप्त नहीं होता। संडासी से नारकियों के मुँह फाड़कर उनमें लौहा गलाकर भर देते हैं, उनसे शरीर गल जाता है, किन्तु फिर क्षणमात्र में उसी प्रकार मिल जाता है, जिस प्रकार पोर के बिन्दु निरन्तर संगठित हो जाते हैं। क्षेत्र की विशेषता के कारण पूर्व बैर को जानकर नारक वृन्दों के द्वारा उनका दमन किया जाता है। उनको धगधगाते हुए (दग्ध) अङ्गारों के समान तप्त लौह स्तम्भों का आलिङ्गन कराकर वे कहते हैं कि रे दुष्ट ! तूने पूर्वकाल में छल से परस्त्री का आलिङ्गन किया था।'' अन्य दूसरे शाल्मलि वृक्ष लाकर तृण अथवा वृक्ष डालियों के समान शरीर एवं सिर तहस-नहस कर डालते हैं। यदि वहाँ से वह किसी प्रकार छूट भी जाता है, तो वह तीन प्यास से घुटने लगता है। फिर उनके सिर पर हथौड़ों के प्रहार से आघात करते हैं और उन्हें तस तेल के कड़ाहों में डाल देते हैं, जिससे उन्हें कुम्भीपाक में पकाए जाने के समान जलन के दु:खं होते हैं276 इस प्रकार जीव अनेक प्रकार के दुःखों को भोगता है। वहाँ (नरक में) जन्म लेकर जीव किस प्रकार सुख प्राप्त कर सकता है। मध्य लोक का वर्णन : ___मध्य लोक एक रज्जू प्रमाण विस्तारवाला कहा गया है, जो द्वीपों एवं सागरों से युक्त है। वे द्वीप एवं सागर जिनेन्द्र ने असंख्य कहे हैं। अपने आयाम में वे दुगुने- दुगुने बताये गये हैं। उसके मध्य में द्वीपों में प्रधान तथा उनके राजा के समान जम्बू द्वीप है। वह एक लाख योजन विशाल प्रमाण वाला हैं, यद्यपि वह आकार में सबसे लघु है, परन्तु गुणों में ज्येष्ठ है।277 भरत क्षेत्र का वर्णन : मेरुपर्वत की दक्षिणी दिशा में धनुषाकार भरतक्षेत्र है। उसमें ऋषि लोग भ्रमण किया करते हैं। उसका प्रमाण 526 योजन से छह कला अधिक है अर्थात् भरत क्षेत्र का प्रमाण कुछ अधिक है; ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। उसके मध्य में सुन्दर विजयार्ध पर्वत है, जो पच्चीस योजन ऊँचा है और पचास बोजन विस्तार वाला है, जो दीर्घत्व के प्रसार में सागर तक चला गया है। 276 णस. 519 27 पास. 5/27:14

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