Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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सूक्तियाँ
i. शिवोह उच्च कप्परुमखु तहु फल को णउ वंछइ ससुक्खु ।
पा, 1/8 - 1/10 अपने घर में उत्पा कल्पवृक्ष के सुखद फल को कौन नहीं चाहता? 2. पुण्णेण पत्तु जइ कामधेणु को णिस्सायइ पुणु हि गयरेणु। पा, 1/8-2/10
यदि पुण्य कर्म से कामधेनु प्रास हो जाय तो अपने घर में मात्र धूलि उड़ाने
वाले हाथी को कौन आश्रय देगा? 3. रयणु व्च दुलहु सावयहु जम्म। पा, 1/8-14/10
श्रावक-कुल समुद्र में गिरे हुए रत्न-प्राप्ति के समान ही दुर्लभ है। 4. ते सवण जि सुणहिँ जिणिंदवाणि। पा. 1/8- 16/10
श्रवण वे ही हैं जो जिनवर की वाणी सुनते हैं। 5. सोएं णासइ तणु-कंति-छाया पा. 313-1/36
शोक से शरीर की कान्ति नष्ट हो जाती हैं। 6. तहु सलहणु किज्जइ अहिउ लोइ जो तवभरु गिण्हइ एत्थु कोइ।
पा. 3/3-8/36 इस लोक में जो कोई तप के भार को ग्रहण करता है, उसी की अधिक सराहना की जाती है। अच्छरिउ काइँ जं तमहुभरु दिणयर-पुरउ पलाइ लहु ।। पा. 3/4-14/38 यदि सूर्य के सम्मुख अन्धकार का भार तत्काल ही हट जाय तो उसारें आश्चर्य ही क्या? बालाणलो किं ण रण्णं डहेऊण संकीरए भप्फवण्णं। पा. 3/5-6/38 क्या अग्नि की एक चिनगारी समस्त वन को जलाकर भस्म नहीं कर
देती? 9. सर-भिण्णु बंभज्जई भट्ठउ || पा, 358-7142
वेदगान में स्वरभग्न होने से ब्राह्मण यत्ति भृष्ट हो जाता है।