Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 267
________________ a 34. धम्मुजि सारउदयपउरो णियमणि जिणवरु सुच्चई। जो करइ ण मणवइ धरिवि श्ररु सो अप्पाणठ वंचइ । पा. 3/22-9-10/54 दयावर धर्म ही सारभूत है। उसे धारण कर अपने मन को स्थिर नहीं करता, वह स्वयं अपने को उगता है। 35. धम्मे तेउ-- रूड - बलु - विक्कमु धम्मे दीहाउसु वि परक्कमु ॥ पा. 3/23-4/54 धर्म से ही तेज, रूप, बल एवं विक्रम की प्राप्ति होती है। धर्म से ही दीर्घायुष्य एवं पराक्रम प्राप्त होते हैं। 36. धम्मु सुहिउ धम्मु त्रि पर सज्जणु 1 पा. 3/23-7/54 धर्म ही कल्याण मित्र है, धर्म ही परम स्वजन है। 37. धम्मे कामधेणु गिहि दुब्भइ । पा. 3/23-8/54 धर्म से ही कामधेनु घर में दुही जाती है। 38. सव्वहं गइहिं दुहु मणुयत्तणु, तर्हि वि दुनहु उत्तमहं कुलत्तणु। पा. 3/25-1 /56 समस्त गतियों में मनुष्यत्व ही दर्लभ है और उसमें भी उत्तम कुल की प्राप्ति दुर्लभ है। 39. खाण दिठु णट्टु तणु- धणु-सयणु सरय अब्भ--संकासउ । पा. 3/25-9/56 तन, धन और स्वजन सभी शरद कालीन मेघ के समान क्षणभर में दिखाई देकर नष्ट हो जाते हैं। 40. संजोयहु नियमें मुणि विओउ । पा. 4/5-8/64 संयोगके नियम से ही वियोग होता है। 41. महु-मज्ज - मंसु वज्जियइ दूरि । पा. 5/4-8/84 मधु, म और माँस का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए। 42. सच्चै सुरणर पणमंति पाय । पा.5/5-3/86 सत्य से देव और मनुष्य भी चरणों में प्रणाम करते हैं। 43. सन् लब्भइ तित्थयरवाय। पा. 5/5-3/86 सत्य से तीर्थंकर की वाणी प्राप्त होती है। pastesxes) ¡

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