Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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60. तणु-धणु विज्जुललवसन सांसइ। था, 6/10-8/132
शरीर और धन विद्युल्लेखा के समान कहे गये हैं। 61, हिंसइ गरइ दुक्खु पाविज्जइ, जिउ संसारसमुद्दि णिमज्जइ, चउरासिीति
जोणि भामिज्जई। पा. 6/12-1-2/134 हिंसा से नरक में दुख प्राप्त होता है, जिससे जीव संसार समुद्र में डूबता है
और चौरासी योनियों में भ्रमण करता है। 62. हिंसइ पंगुलु णरु बहिरंधर। पा. 6/12--3/134
हिंसा से व्यक्ति पङ्गु, बहरा एवं अन्ध होता है। 63. हिंसइ णीसु वि तिलपिंडासणु। पा. 6/72 4/134
जो हिंसा करता है अथवा जो तिलमात्र भी (मांस) भक्षण करता है, वह
नाश को प्राप्त होता है। 64. तुवि परिणामु जि कारण वुत्तड, पावहो पुण्णहो होइ णिरुत्तर।
पा.6/18-12/140 संसार में निश्चित रूप से परिणाम (भाव) ही पुण्य और पाप का कारण
होता है। 65. कज्जु वि णिय परिणाम मुणि पा,6/18-17/140
कार्य भी अपने अपने (कर्मों के) परिणाम ही हैं। 66, जिण धम्मरसायणु सहसयदायण णरभवि जेण ण भावियउ। सो जम्म वि
हारइ सुहगइ वारइ रयणु व दुल्लहु पात्रियउ।। पा. 6/22 - 14-15/44 अनेक सुखों को प्रदान करने वाले, जिनधर्मरूपी रसायन का जिसने नरभव में सेवन नहीं किया वह दुर्लभ रत्न के समान प्राप्त नर- जन्म को हार जाता
हैं और शुभगति को दूर कर देता है। 67, दुजण-सज्जण ससहाब जे वि दोसई गुणाई गिण्हति ते नि ।।
पा.716.6/152 जो दुर्जन अथवा सज्जन जैसे स्वभाव से युक्त हैं, वे तदनुसार दोषों एवं गुणों को ग्रहण करते हैं।