Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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44. जा-जा अण्णहु जुवई सुजाण मण्णइ जणणि-बहिणी समाण।
पा.5/5-9186 जो जो भी परयुतियाँ हों, उन्हें सुजान व्यक्ति माँ एवं बहन के समान
मानता हैं। 45. दासी वेसहिं जो रतु लोइ तहु णियमें क्ठ णउ एक्कु होइ। पा.. 5/5-11/86
जो व्यक्ति इस लोक में दासी एवं वेश्याओं में आसक्त होता है, उसको
नियम से एक भी व्रत नहीं होता। 46. जीवहु सबहु णियमें खमामि ते मझु खमंतु वि चित्तरामि। पा. 517-186
सभी जीवों को मैं नियम से क्षमा करता हूँ, वे भी मुझे प्रसन्न होकर क्षमा
करें। 47. जहिं पसरइ तमभरु दिठ्ठि वि सहयरु खयर वि जत्थ ण संचरहि। तहिं दोसपहायरि एत्थ विहावरि किं सावथ भोयणु करहि।।
पा. 5/7-15-16/88 जहाँ अन्धकार का प्रसार हो, देखना भी कठिन हो, जब पक्षी भी संचार न करते हो, उस दोष उत्पन्न करने वाली रात्रि में श्रावक भोजन कैसे कर
सकता है? 48. अणगालिङ जल कासु ण दिज्जद। पा. 5/8-6/90
अवछना जल किसी को भी नहीं देना चाहिए। 49, जूवंधु णरु थिट्ठठ्ठ पावितु दप्पिट्टु जम्मे वि उ सरइसो कम्मु
सुविसिछु। पा. 5/9-1190 घृष्ट, पापिष्ठ एवं दर्पिष्ठ द्यूतान्ध मनुष्य जन्म भर भी विशिष्ट कर्मों (पुण्य)
का अनुसरण नहीं करता। 50 जिह जलवरुहि रहु आयट्टइ तिह वारा पुणु णेहें बट्टइ ।
पा,5/11-5/92 जिस प्रकार वारूही का जल रथ को काट देता है, उसी प्रकार वेश्या अपने
स्नेह से वर्तन करती है (अर्थात् धन को काटती है)। 51. सीलरयणु मा दुलहु भज्जहु। पा. 5/11-9/92
दुर्लभ शीलरूपी रत्न को भग्न मत करो।