Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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22. अंदय - सुह तडि तरलतणन। पा. 5/14-7146
इन्द्रिय सुख बिजली के समान चंचल है। 23. भारुवह य जरपत्तुव- सारसु तह रज्जु भाउ साल क पा ::I
6:48 राज्यभोग। भी भारोपहत जीर्णपत्र के समान किसी के लिए शाशा नको
होता। 24. (बहुधाचे) सामि-- भिच्चु भिन्यु वि दासतांना पा. :16 4:48
बहुस पापों के कारण स्वामी भृत्य और भृत्य दास बन जाता है। 25. मुणि तासु सरीरहु सास इहु जं तन्न -वय संजम घरणु। पा, 3:19-:57.
तप, व्रत एवं संयम का जा धारण है, वही इस संसार में शरीर का रंगर
जानिए। 26. मान वय काय असहसंचारे असा मुआयना पा. 3:20
5:52 मन, वचन एवं काय के अशुध पत्र सारहीं। संचार से अशुभ कमांश्रव
होता है। 27. मित्तह सम्म पतला . 321212 ..
मिथ्यात्व के निराध के लिये गयकाय पाहा । 28. खमा-परिणामें कोह णिहा पा. 3/21 35
क्षमाभाव से क्रोध का दम्। य: 1 ! : 29. माणु वि मद्दवभावे जिप्यइ। पा. २:21. ३.५
मार्दव भाव से मानकषाय को जीता जाता है। 30. माया अजवेण पारिजइ। पा. 3212
आर्जनभाव मे माया का निवारण किया जाता 31. संतोसें लोहु वि दारिजर। पा. 3/21 4732
सन्तोष से लोभ को विदीर्ण किया जाता है। 32. संवर सासयमग्गहु सहयरु। पा. 3:21 8/54
मोक्षमार्ग के लिए संवर (ही) सहचर हैं। 33. संवर पुन्च किणिज्जर विरलहँ पा. 3/22-7354
संवर पूर्वक निर्जरा बिरलों के लिए ही होती है।