Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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r anslations तक दोघं है। वहाँ मनुष्यों की आयु एक पल्य एवं शरीर का प्रमाण एक गव्यूतिहै।
वे वहाँ मनोवाञ्छित भोगों को भोगते हैं, वहाँ 7 शीत है, न उष्णता और न रोग-शोक। वे आँवले के बराबर ही आहार ग्रहण करते हैं अथा कभी भी मलमूत्र का त्याग नहीं करते है।282 वह भोग भूमि जघन्य होने पर भी श्रेष्ठ सुखों की खानि है। रोहित एवं रोहितास्या नाम की चञ्चलन वाली दो नदिया है, उनका. कहीं स्खलन नहीं होता283 उन दोनों नदियों का प्रथम निर्गमन मख साढ़े बारह योजन कहा गया है, फिर क्रम-क्रम से दस गुनी विस्तीर्ण होकर वे दोनों नदियाँ पूर्व एवं अपर सागरों को प्राप्त होती हैं।284
हैमवत् क्षेत्र की उत्तर दिशा में दो सौ योजन ऊँचा एवं अत्यन्त सुन्दर महा हिमवन्त नाम का कुलाचल हैं, जो दीर्घता में समुद्र तक फैला है। जो 421010/19 योजन प्रमाण है। यह उस पर्वत का विस्तार है, उस पर आठ कूट कहे गये हैं। पुन: वहाँ पद्म नामक महाहृद है, जिसका अन्नगाह बीस योजन कहा गया है। उसका आयाम दो सहस्त्र तथा विस्तार उससे आधा है। उसके मध्य में बज्रमय दो योजन विस्तार वाला कमल हैं, जिसके पत्र दो योजन विस्तीर्ण हैं। उसकी कर्णिका भी दो योजन प्रमाण है, जिस पर "ह्री" नाम की देवी सदा निवास करती है। उस पर्वत के सरोवर से उत्तर दिशा में रोहित एवं हरित नदियाँ निकली हैं। वहाँ हरिवर्ष नाम का पवित्र क्षेत्र है, जहाँ के निवासी मनुष्य स्वभाव से ही सरल चित्त होते हैं। वहाँ मनुष्यों को आयु दो पल्य की होती है और उनके शरीर का प्रमाण दो गाह प्रमाण होता है। उनका भोजन एक अक्ष (बहेड़ा) प्रमाण होता है। वे मलमूत्र विसर्जन नहीं करते, फिर भी उनका शरीर नीरोग बना रहता है285 __8421- योजन हरि वर्ष क्षेत्र का प्रमाण है। वह कल्पवृक्षों का स्थान है और वहाँ समस्त मध्यम भोगभूमियाँ286 हैं। लम्बाई में वह रौद्र जलचरों से युक्त पूर्व एवं अवर समुद्र से सटा हुआ है। उस क्षेत्र में हरित् एवं हरिकान्ता नामक दो
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282 पास. 5:29 283 वहीं घना-100 284 वही 5:30:12 285 पाम. 5.003 I 28 व अत्ता- CE