Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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मिथ्यात्व352 :
जिनदेव, जिनशास्त्र, जिनगुरु एवं जीवादि तत्त्वों के प्रति श्रद्धान न होकर जिन शासन के विपरीत मान्यताओं को मानना, तदनुरूप आचरण करना मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व का निरोध सम्यक्त्व से होता है।353 योग854 :
काय, वचन और मन की क्रिया योग है 355 उसके दो भेद हैं-शुभयोग और अशुभयोग। मन, वचन, काय के अशुभ एवं सारहीन संचार से अशुभ कत्रिव होता है, जिसके कारण जीव चौरासी लाख योनियों के दुःखों को भोगता है। शुभयोग से शुभ कर्मास्त्रव होता है, जिसके कारण जीव वाञ्छित शिव लक्ष्मी को प्राप्त करता है।356 लेश्या357 :
जिससे जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे, उसको लेश्या358 कहते हैं। कषाय के उदय से अनुरक्त योग की प्रवृत्ति को भी लेश्या359 कहा गया है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल: ये छह भेद लेश्या के हैं। 360 इनमें से प्रारम्भ की तीन बुरी और अन्तिम तीन अच्छी लेश्यायें हैं। अभक्ष्य361 :
जो भक्ष्य अर्थात् भोजन के योग्य नहीं है वह अभक्ष्य कहलाता है। जिन पदार्थों में त्रस और स्थावर जीवों की उत्पत्ति स्वतः होती रहती है, वे अभक्ष्य कहलाते हैं। इन पदार्थों को अनिष्ट व अनुपसेव्य भी कहते हैं। मर्यादा से रहित पदार्थ भी अभक्ष्य की श्रेणी में आते हैं। मुख्यत: बाईस अभक्ष्य कहे गये हैं. जो इस प्रकार हैं
352 रइधू : पास 1/5,3721 353 "मिच्छन्तहु सम्मन्तु पठन्तउ," वही 3/21 354 वही 3/20 355 "कायवाङ्मनः कर्मयोगः" तत्वार्थसूत्र 6:1 356 पास. 3/20 357 वही 3:21 358 गोम्मटमार जीवकांड, गाथा 488 359 यही गाथा-489 360 सर्वार्थसिद्धि : पूज्यपाद, संस्कृत टीका, अध्याय-2, सूत्र-5 361 पास. 1/8 sxeseSTASTRASTESesmals 230 kusesxasyasruseshisiness,