Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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होना सविपाक निर्जरा और समय से पूर्व ही तप के द्वारा कर्मों का नष्ट हो जाना या कर देना, सो अविपाक निर्जरा कहलाती है। 28 निर्जरा से सम्यक् ज्ञान प्रकाशित होता है और ज्ञान से लोकालोक माषित होता है।129 इस प्रकार हे भाई! तू विषय कषायों और अपने मन की चंचलता भरी आदतों का त्यागकर अपने आनन्दमयी निज स्वरूप का ध्यान करो, जिससे तेरे दुखदायक कर्मबन्ध की निर्जरा हो जाय और केवलज्ञान का प्रकाश हो।130 धर्मानुप्रेक्षा :
दयाप्रवर धर्म ही सारभूत है, जो उसे धारण कर अपने मन को स्थिर नहीं करता वह स्वयं अपने को ठगता है।131 दस धर्म, रत्नत्रय, बारह विध तप एवं तेरहविध चारित्र का आचरण ही धर्म है। धर्म ही समस्त दु:खों का निवारण एवं संसार समुद्र से पार उतारने वाला है। धर्म से ही तेज, रूप, बल एवं विक्रम प्राप्त होते हैं। धर्म से ही मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति होती है। धर्म ही कल्याणमित्र है, धर्म ही परम स्वजन है। धर्म से कोई भी व्यक्ति दुजन नहीं दिखाई देता।132 धर्म के बिना यह मनुष्य भव विफल है, यह समझकर वैसा उपाय करो, जिससे
पापरूपी वृक्ष को काटकर शीघ्र ही परमात्मपद को प्रास किया जा सके।133 इस • प्रकार धर्म के बारे में चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है। लोकानुप्रेक्षा :
लोक तीन हैं, (अधः, मध्य और ऊर्ध्व), जो तीन वात वलयों पर आधारित हैं और छह द्रव्यों से निरन्तर भरे हए हैं। यह लोक (तीनों क्रमश:) वेत्रासन. झल्लरी एवं पटह के समान हैं और चौदह राजू ऊँचा तथा प्रथुल है। लोक का सम्पूर्ण क्षेत्रफल 343 राजू है, जो किसी के द्वारा कम या अधिक नहीं किया जा
128 निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना ।
तप करि जो कर्म खिपावे, सोई शिव सुख उपजावे ।।
पं.दौलतराम जी कृत छहढाला 5/11 129 रइधू : पास. 3/22 130 तजि कषाय मन की चलचाल, घ्याओ अपनो रूप रसाल ।
झरे कर्मबन्धन दुःख-दान, बहुरि प्रकाशै केवलज्ञान ||
कविवर बुधजन कृत छहदाला, 1/10 131 रइधू : पास., घत्ता- 47 132 वही 3/23 133 वही, धत्ता-48
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