Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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10, 11, 12, 13. अर्हदाचार्यबहुश्रुत प्रवचन भक्ति :
केवलज्ञान, श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारी परहित प्रवण और स्वसमय विस्तार निश्चयज्ञ अर्हन्त, आचार्य और बहुश्रुतों में तथा श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले मोक्षमहल की सीढ़ी रूप प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग रखना अहंद् भक्ति, आचार्य भक्ति, बुहत्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति हैं।177 14, आवश्यकापरिहाणि : ___सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग: इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा कि स्वाभाविक क्रम से करते रहना आवश्यकापरिहाणि है। सर्व सावध योगों को त्याग करना, चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है। तीर्थङ्करों के गुणों का स्तवन चतुर्विंशतिस्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड़गासन या पद्मासन से चार बार शिरोन्नति और आवर्तपूर्वक वन्दना होती है। कृत दोषों की निवृति . प्रतिक्रमण है। भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है। अमुक समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।178 15. मार्ग प्रभावना : ___महोपवास आदि सम्यक् तपों से तथा सूर्यप्रभा के समान जिनपूजा से सद्धर्म का प्रकाश करना, मार्ग प्रभावना है।179 16. प्रवचनवत्सलत्व :
जैसे गाय अपने बछड़े से स्नेह रखती है, उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओत-प्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है।180
लोकों के लिए सुखदायक, जो तीर्थङ्कर हो चुके हैं, आगे होंगे तथा जो वर्तमान में हैं, वे सभी सोलह कारण भावनायें भाकर (ध्याकर) तथा आत्मा के शुद्ध परमात्मगुण को पाकर ही सिद्ध हुए हैं।181 अतः हमें भी यथाशक्ति इनका ध्यान करना चाहिए।
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177 तत्वार्थ यात्र्तिक 6:24 की व्याख्या, वार्षिक नं. 10 178 चही वार्तिक नं. 11 179 वहीं, बार्तिक नं. !? 780. बही, पार्तिक. 15 181 रइथ: पास. 6:20
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