Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
View full book text
________________
3. शीलवतेष्वनतिचार : ___अहिंसा आदि तथा उनके परिपालन के लिए क्रोधवर्जन आदि शीलों में काय, वचन और मन की निदोष प्रवृत्ति शीलवतेष्वनतिचार है।170 4. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग: ___ जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने वाले मति आदि पाँच ज्ञान हैं। अज्ञान निवृत्ति इनका साक्षात्फल है तथा हित प्राप्ति, अहित-परिहार और उपेक्षा व्यवहित फल हैं। इस ज्ञान की भावना में सदा तत्पर रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।171 5. संवेग :
शरीर मानस आदि अनेक प्रकार के प्रिय वियोग, अप्रिय संयोग, इष्ट का अलाभ आदि रूप सांसारिक दुखों से नित्य भौरुता संवेग है।172 b. त्याग :
पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु देना त्याग है।173 7. तप: ____ अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है।
174
8. साधुसमाधि :
जैसे भण्डार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शान्त की जाती है, उसी तरह अनेक व्रत-शीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधुसमाधि है।175 9. वैयावृत्य :
गुणवान् साधुओं पर आये हुए कष्ट रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा करना बहु उपकारी वैयावृत्य है।176
170 तत्वार्थवार्तिक 6/24 की व्याख्या, वार्तिक नं. ३ 171 वही, वार्तिक नं.4, 172 वही, वार्तिक नं.5 173 वहीं, वार्तिक नं.6 174 बही, वार्तिक नं.7 175 वही, वार्तिक नं. 8 176 वही, वार्तिक नं.१ Postasisesexsuspasses 2016xsesasxesiasmustester