Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir

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Page 222
________________ सम्यकचारित्र: मन्यग्दर्शन और सन्या मान सहित व्रत, गुप्ति, समिति आदि का अनुष्ठान करना. उत्तमक्ष मादि दश धर्मों का पालन करना, मूलगुण और उत्तरगुणों का धारण करना, मम्याक्जाति है अश्वता विषय कषाय. वासना, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशौल और परिग्रहरूप क्रियाओं से निवृत्ति करना, सम्यक्चारित्र है।157 जिनाभिषेक एवं जिनपूजा : __ 'पासणाहयरिंउ' में जिनपूजा का प्रसङग आया है। सर्वप्रथम 1008 लक्षणों से युक्त, भगवान का उतने ही कलशों से अभिषेक किया गया। दुन्दुभि, कंसाल, परह, बाल एवं नानाप्रकार के मधुर वाद्य बज रहे थे। पुन: इन्द्र ने दीर्घबाहुनाथ का मटन किया, फिर शुद्धोटक से जिनवर को स्नान कराकर गन्धोदक की बन्दना की। श्रेष्ठ बस्त्र में पर पाक के समान भगवान को दूसरे आसन पर स्थापित किया। सोन्द्र गिनिर्मित झारी में जल ले भगवान के सम्मुख तीन धारायें देकर पूजा का उत्तम विधि प्रारम्भ 511159 जिसकी गन्ध के राग से लुब्ध होकर भ्रमरावली गुंजन कर रही थी, जिसके प्रभाव से स्वर्ग में समस्त अभिलियित वस्तुयें पूर्ण हो गईं और पित दाह आदि व्याधियाँ भंग हो गईं। ऐसे चन्दन से भक्ति भावपूर्वक चर्चा (पूजा) की, मानो भविष्य में होने वाले तीव्रताप से अपने को दूर कर रहा हो। प्रमदवन में जाकर राय चम्पा और मालती (पुष्य) लाकर शची ने भव्यमाला ग्रथित की। इन्द्र ने उसे लेकर वीतराग भगवान के पादमूल में स्थापित कर दिया, मानो कामदेव के वाण से ही भगवान के चरणों की पूजा को हो। निर्मल शालि बीजों को छोटी छोटी ढेरियाँ लगा दी गईं, मानो आकाश में सुन्दर धार्मिक नक्षत्र ही स्थिर हो गए हैं। प्रिय वास से सुवासित, ताजे, लक्षलक्ष पक्वान्न स्वर्ण-निर्मित स्वच्छ पात्रों में सजाकर रखे गये। सर्यकान्ति के समान दीप्त स्वर्ण भाजन में चित्त को सुख देने वाला, धूमरहित शुद्ध दीपक सजाकर इन्द्र दुन्दुभिरव के साथ अनुरागपूर्वक नृत्य करने लागा, मानो वह भी 157 असुहादो विणिवित्तो सुहे पवित्तो य जाण चारित्त। . बदसमितितरूव ववहारणाया दुजिण भणिय ॥ - द्रव्यसंग्रह-45 158 रइधू : पास. 2/12 - 159 वही, धात्ता--22

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