Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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एकत्वानुप्रेक्षा :
यह जीव स्वयं ही कर्मों का कर्ता और उसका भोक्ता है। अकेला ही चारों गतियों में भटकता रहता है। दर्परहित आत्मा बिल्कुल असहाय और अकेला है, शुद्ध जीव अकेला ही निरञ्जन, ज्ञानमय एवं कर्मविमुक्त होता है, यहाँ संसार में उसका कोई अन्य नहीं118 इस प्रकार की भावना का चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। अन्यत्त्वानुप्रेक्षा :
शरीर, पंचेन्द्रियजनितसुख, माता-पिता, पुत्र, मित्र, बन्धु, भवन, हाथी, घोड़े आदि सब बाह्य पदार्थ हैं, मेरा कुछ भी नहीं है। जीव (आत्मा) ही मेरा हैं।119 इस प्रकार की भावना करना अन्यत्वानप्रेक्षा है। अपने मन में अन्यत्व को जानकर भी जो दुर्शन नहीं कर, अनेकों दुःख और लाखों गोलियों से युक्त संसार में भटकता रहता है।120 अशुच्यानुप्रेक्षा :
यह अशुचि देह अशुचि पदार्थों में से उत्पन्न हुई है। जो शोक, रोग तथा अनेको दु:खों से आच्छादित रहती है, अत्यन्त दुर्गन्धिपूर्ण है और जिसमें से पसीना और मैल विगलित होते रहते हैं। वह सप्त धातुओं का घर, अस्थि-पंजर से युक्त, चमाच्छादित, अन्तड़ियों की पोटली और यमराज के मुख में पड़कर असार एवं विकृत हो जाती है। यह शरीर श्रीखण्ट, कर्पूर आदि तथा देवों द्वारा मान्य क्षीरसागर के जल से धोने पर भी पवित्र नहीं होता।121 तप, व्रत, एवं संयम का धारण करना ही संसार में शरीर का सार है. उन्हें धारण किये बिना जीव के लिए माया एवं मदप्रचुर यह शरीर केवल कास्त्रव का ही कारण बना रहता हैं।122 इस प्रकार देह की अशुचिता का चिन्तन करना अशुच्यानुप्रेक्षा है।। आनवानुप्रेक्षा :
मिथ्यात्व, अविरति, योग और कषाय तथा पंचेन्द्रियों के रसास्वादन से उत्पन्न विकार, नोकषाय और अज्ञान के विविध प्रकार आदि अनेक भावों के
118 पास 3/17 एवं बत्ता-42 119 वही 3/18 120 वही, घत्ता- 43 121 वही 3/19 122 वही, धत्त!-44