Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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अहिंसाणुवत: ___मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय,
चौइन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय जीवों का घात न करना, अहिंसाणुव्रत है.29 जीवों के लिए मैत्री का विधान किया गया है। अपनी ज्ञान शक्ति के अनुसार जीव को जानकर उसे नहीं मारना चाहिए।30 जिससे प्राणियों के प्राणों का क्षय होता है, वैसा उपदेश किसी को भी न दे। मधु, मद्य और मांस का दूर सं हा त्याग कर देना चहिए, जिससे दया का भाव बढ़े 2 पाँच उदुम्बरों के भक्षण से अपनी रक्षा करो तथा कन्द-मूल का त्याग करो। संसार रूपी वन में वास कराने वाली उक्त वस्तुओं को सज्जन व्यक्ति न तो स्वयं चखे और न उनके सेवन का दूसरों को उपदेश ही दे,33 सो अहिंसाणुव्रत है। सत्याणुव्रत :
जो स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है तथा विपत्ति का कारणभूत सत्यवचन भी न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है, उसी को सत्याणुव्रत कहते हैं। 4 विवेकशील व्यक्ति को ऐसा वचन बोलना चाहिए, जिसमें पाप की अल्प भी सम्भावना न हो. वह तत्त्व को प्रकट करे, तत्त्व का ही उपदेश दे और तत्त्व ही बोले। जिनवर द्वारा भाषित तत्त्व को दूषित न करे। सत्य से देव एवं मनुष्य भी चरणों में प्रणाम करते हैं। सत्य से तीर्थङ्कर की वाणी भी प्राप्त होती है।35. अचौर्याणुव्रत :
स्वयं अथवा अन्य व्यक्तियों के द्वारा दिए गए. पर द्रव्य को ग्रहण नहीं करना,मार्ग में पड़े हुए अथवा रखे हुए परद्रव्य को नहीं लेना, न उसे दूसरे व्यक्ति को देना, न अपने हाथों से स्पर्श करना, चोरों के समूह में भ्रमण नहीं करना, चोर के साथ व्यापार एवं स्नेह नहीं करना, न लोभ से उसके घर जाना
29 रनकरण्ड श्रावकाचार 3/53 30 रइधू: पा.5/4-2 31 वही 5/4.4 32 वही 5,48 33 वहीं, घत्ता-75 34 रनकरण्ड श्रावकाचार ३:55 35 रहनू : पास. 5/5:13
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