Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
View full book text
________________
xstoresista
టోట
उक्त संवाद की मौलिकता पर टिप्पणी करते हुए रइधू साहित्य के प्रमुख अध्येता डॉ. राजाराम जी ने लिखा है कि -
पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर हैं। तीर्थंकरों में शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ एवं अरह नाथ, जो कि तीर्थंकर होने के साथ-साथ चक्रवर्ती भी हैं87 जिन्होंने शान्ति और सुव्यवस्था के हेतु आतताईयों का दुर्दमन कर अहिंसा-संस्कृति का प्रसार किया है। महाकवि रइधू के मस्तिष्क में तीर्थंकर चक्रवर्ती का प्रत्यय (Conception) था। फलत: वे अपने नायक को भी तीर्थंकर चक्रवर्ती के रूप में देखना चाहते थे। अतः हमास अनुमान है कि उन्होंने पार्श्वनाथ के युद्ध में जाने की यह कल्पना कर नायक को एक नया ही रूप प्रदान किया हैं। जहाँ तक अन्य पार्श्वनाथ चरित्रों के अध्ययन का प्रश्न है, वहाँ तक हम यह कह सकते हैं कि कवि की यह कल्पना लगभग मौलिक है। अतः महाकाव्य का कवि पौराणिक महाकाव्य के लिखते समय भी अपने नायक को आरम्भ से ही देवत्व के वातावरण में खत्रित करना नहीं चाहता। आदर्श मानवीय गुणों का आविर्भाव कर ऐसे चरित्र का रसायन तैयार करता है जिससे मानवता अजर-अमर हो जाती है। महाकवि रइधू ने भी पौराणिक इस चरित काव्य में नायक पार्श्वनाथ को आरम्भ से ही तीर्थंकर या देवत्व की चहारदीवारी से नहीं घेरा है। अतः इस संवाद में जहाँ पिता-पुत्र के वात्सल्य की संयमित धारा प्रवाहित हो रही है, वहाँ नायक के चरित का वीर्य और पौरुष भी झाँकता हुआ दिखाई पड़ रहा | अतएव यह संवाद मर्मस्पर्शी एवं रसोत्कर्षक है 188
पार्श्वनाथ और तापस का संवाद :
कुशस्थल को शत्रुओं से रिक्त कराकर और अर्ककीर्ति से शत्रु यवननरेन्द्र को पराजित कर जब पार्श्वनाथ कुशस्थल में ही रह जाते हैं, तब एक दिन पार्श्व अपने मामा अर्ककीर्ति के साथ वन में तापस संघ के दर्शनार्थ जाते हैं, और वहाँ एक तापस को पञ्चाग्रि तप करते हुए देखते हैं। कुछ अज्ञानी जनों द्वारा नमस्कृत उस तापस को देखकर सम्यक् ज्ञानी पार्श्व जिन बोले - "जो स्वयं ही संसार के दुःख को नष्ट नहीं कर सकता, उस मिथ्यादृष्टि की भक्ति
87 तिलोयपण्णत्ती 4:121
88 डॉ. राजाराम जैन : रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ. 158
Sexxxx45) 137
xxxx