Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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हो। विदीर्ण एवं मरे हुए योद्धाओं से पृथ्वी रुंध गई, तो योद्धागण उनके सम्मुख आकर दौड़ते थे, तब उससे राजा अर्ककीर्ति की सेना उसी प्रकार त्रस्त हो गई, जिस प्रकार वेदगान में स्वरभग्न होने से कोई यति भ्रष्ट हो जाता है। अपने सैन्य को भागते हुए देखकर जब तक रविकीर्ति ने उसे धैर्य बँधाया और मारो-मारो करते हुए दौड़ा तभी उसका शत्रु कालयवन उसके सम्मुख आया और वे दोनों नृप सिंह के समान कुद्ध हो गये। वे दोनों नरेश्वर धनुष-बाण हाथ में लेकर परस्पर तर्जना कर ही रहे थे, तभी देवों एवं मनुष्यों में श्रेष्ठ पार्श्व जिनेश भी वहाँ पहुँचे 99 जैसे ही पार्श्व जिनेश को कालयवन ने देखा, वह उनके प्रताप से भयभीत होकर युद्धभूमि छोड़कर भाग गया। युद्ध का फल :
युद्ध हमेशा दो पक्षों में ही होता है और उनमें से एक पक्ष अन्यायी, राजलोलुपी होता है और दूसरा न्यायवान्। युद्ध में प्रायः अन्याय पर न्याय की और असत्य पर-सत्य की ही जीत होती है। अतः हम कह सकते हैं कि युद्ध का परिणाम शान्ति की स्थापना एवं प्रजा के हितों की रक्षा करना ही होता था।
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पास.38 वही बत्ता 33 वहीं 339-6