Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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बौद्ध साहित्य में भगवान पार्श्वनाथ :
दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में निगण्ठनातपुत्त (ज्ञातृपुत्र भगवान महावीर) का परिचय चातुर्याम संवर के उपदेशक के रूप में दिया गया है - निगण्ठ चार (प्रकार के) संवरों से संवृत (आच्छादित, संयत) रहता है। fण्डार मंत्र से केसे संपत रहता है । निगण्ठ जल के व्यवहार का वारण करता है (जिसमें जल के जीव न मर जायें) 2. सभी पापों का वारण करता है, 3. सभी पापों का वारण करने से धुतपाप (पाप रहित) होता है, 4. सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है। निगण्ठ इस प्रकार चार संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निग्रंन्थ, गतात्मा (अनिच्छुक), यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है146
जैकोबी ने कहा है कि नातपुत्त के उपदेशों का यह सन्दर्भ बड़ा अस्पष्ट है147 सामअफलस्त्त में जी चातर्याम संवर कहा गया हैं, ये जैनों की चार विशेषतायें है।148 यथार्थ चातुर्याम संवर, जिसका पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्ध है, पालि आगमों में अन्यत्र उल्लिखित है।
बुद्ध के प्रश्न के उत्तर में असिंबन्धक पुत्त गामिणी ने कहा था कि निर्ग्रन्थ नातपुत्त ने अपने श्रावकों को प्राणातिपात (हिंसा) अदत्तादान (चोरी) मिथ्या कामनायें तथा मृषाभणिति (झूठ बोलना) छोड़ने का उपदेश दिया था।149
अंगुत्तरनिकाय में निगण्ठनातपुत्त ने पाप में गिरने के पाँच मार्ग बतलाए हैं . प्राणातिपात, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, मृषावाद तथा मादक पदार्थों का सेवना150
बे सन्दर्भ न तो सही रूप में और न क्रमिक रूप से लिखे गए हैं. निकाय पानं नाथ और महावीर के व्रतों के विषय में भ्रमित हैं। पार्श्वनाथ की परम्परा में परिग्रह को चौथा पाप बतलाया गया था, जिसमें कि अब्रह्मचर्य सम्मिलित था, का उल्लेख निकायों में नहीं है. जबकि अब्रह्मचर्य, जिसे निगण्ठनापुत्त ने परिग्रह से पृथक् किया था; का उल्लेख यहाँ किया गया है।
146 दीघ निकाय 1 147 जैन सूत्राज भाग 2 ( मेक्रिड बुक ऑफ द इंस्ट) भूमिका. पृ. 20-21 148 संयुत्त निकाय - 4 149 दीर्घ निकाय . 1 150 अंगुत्तर निकाय - ३