Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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हो उठा (और बोला)-हे नरश्रेष्ठ, अप्रिय क्यों बोलते हो? हमारी क्या अज्ञानता हो गई? बड़े मात्सर्यपूर्वक आप परनिन्दा क्यों कर रहे हैं? कमठ की बात सुनकर त्रिलोकपति ने पूछा- बताओ, तुम्हारा गुरु मरकर कहाँ उत्पन्न हुआ है? पार्श्व के वचन सुनकर तथा आरक्त नेत्र होकर वह कमठ प्रत्युत्तर में बोला-इस बात को प्रत्यक्ष कौन जान सकता है? तुम ज्ञान में बड़े दक्ष दिखाई दे रहे हो। यदि तुम जानते हो तो इस बात को बताओ। यह सुनकर पार्श्वनाथ बोले "तुम्हारा यह गुरु मरकर वृक्ष की कोटर में दीला सर्प हुआ है। अरे मूर्ख! क्या जलते हुए को नहीं देख रहा है? वृक्ष फाड़कर तृ उसे प्रत्यक्ष देख लें।' इस वचन को सुनकर वह दुष्ठ कमठ चिल्लाया- "मेरे जो महान् गुरु थे तथा जो तपस्या के कारण क्षीणदेह थे और जो पञ्चाग्नि के ताप सहन करने में अत्यन्त प्रवीण थे। वे सर्प कैसे हो सकते हैं? । ___ रइयू दृश्यों को न्योरेवार उपस्थित करते हैं। ब्योरों को मूर्त रूप देने में और उनका साङ्गोपाङ्ग चित्र खड़ा कर देने में वे सिद्धहस्त हैं। गुरु सर्प कैसे हो सकते हैं? यह शङका होते ही
ता तिरखकुठारें कोहिएण कठु वियारिउ तेणणरु । अद्ध अधु तहँ उरयजुउ दिट्ठ तत्थ धुणंतु सिरु ।। 3/37 (घत्ता)
उस क्रोधित कमठ ने तीक्ष्णा कुठार से उस काष्ठ को बीचों बीच से फाड़ दिया और उसमें अपने अर्द्धदग्ध सर्पयुगल को अपना सिर धुनते हुए देखा। नाद सौन्दर्य दृष्टि की से कवि जहाँ युद्ध का वर्णन करता है, वहाँ कठोर ध्वनियों का व्यवहार करता है उन ध्वनियों के श्रवण से ही युद्ध का दृश्य उपस्थित हो जाता है। श्रृङ्गारिक वर्णन के प्रसङ्ग में शब्दों का प्रयोग मधुर हो जाता है। रइधू की भाषा :
उत्तरकालीन अपभ्रंश का जो रूप रइधु के काव्य में दृष्टिगोचर होता है, उसके सम्यक् विवेचन से यह तथ्य स्पष्टतः सामने आता है कि आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं के प्रारम्भिक रूप का विकास जिस भाषा-रूप से हुआ, उससे वह कितना निकट है। इस दृष्टि से अपभ्रंश धारा में रइधू का स्थान अद्धितीय है।
अपभ्रंश का हिन्दी से क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्र पर विचार प्रकट करते हुए महा पण्डित राहुल जी ने "हिन्दी काव्यश्वारा" की भूमिका में लिखा है- इसस
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