Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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पेच्छ•इवि • पेच्छिवि 2/3 समार। इवि - समारिवि 213 जा+इत्रि = जाइवि 2/3
जो इवि - जोइवि 2/8 प्रेक्ष . पिकरव+इनि = पिक्विवि 217
कर+एप्पि = करेणि 2/10 कर एप्पिणु - करेप्पिणु 7/10
द एपिणु - देप्पिणु पुलकित्तो
भूत्वा = पुलएप्पिणु 1/7 जाण-इवि = जाणिवि
थुवा एत्रि .. थुवेत्रि श्रृंगार कृत्वा सिंगारिवि
213 प्रेक्ष्य - पिविश्ववि
2/8 दत्चा देवि
27 संप्रेक्ष्य = संपेच्छिवि 2/8 समारिवि 2.3 नमस्कृल्य = णमसिड
3/1 अलंकार योजना आचार्य दण्डी ने काव्य-शब्दार्थ की शोभा करने वाला अलङ्कार माना है। वामन ने यह कार्य गुण का कहा है और अतिशय शोभा करने वाला धर्म ही अलङकार बताया है। आनन्दवर्द्धन ने अलङ्कार को अंग-शब्दार्थ के आश्रित माना है और उन्हें कटक, कुण्डल आदि के समान शब्दार्थ रूप शरीर का शोभाजनक कार्य कहा है। आनन्द वर्द्धन ने अलङ्कार लक्षण में अलंकार का रस के साथ कोई सम्बन्ध निर्दिष्ट नहीं किया। यह कार्य मम्मट4 और विश्वनाथ ने किया है। इनके मत से अलंकार शब्दार्थ की शोभा द्वारा परम्परा सम्बन्ध से रस का प्रायः उपकार करते हैं। अपने अलङ्कार लक्षणों में इन्होंने अलंकार को
1 काव्यशोगाकरान् धानलङ्कारान् प्रचक्षते || काव्यादेश 219 2 तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः । काव्यादर्श 3/172
अमाश्रितास्वलकारा: मन्दव्या कटकादिवत् ॥ म्वन्यालोक 26 4 उपकुवन्ति तं सन्तयेऽद्वारेण जातुवित् ।। काव्यप्रकाश 8167 5 रसादीनुपकुर्वन्नोऽलंकारासोऽङगदादिवत् ।। साहित्यदर्पण 10/1