Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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थे 1166 तेजपुर की गुफा में जो पार्श्वनाथ की प्रतिमा है, उसके विषय में भी कहा जाता है कि उसे लङ्का से लाया गया था 1167 'करकण्डुचरिउ' में इस बात का वर्णन है कि कैसे मलय के जैन राजा अमितवेग ने रावण के घनिष्ठ मित्र के रूप में लंकाद्वीप का भ्रमण किया। रावण ने मलय में एक जैन मन्दिर बनवाया था | 168 इस मलय की पहिचान लङ्का के मध्य पर्वतीय देश मलाया से हो सकती है।
आचार्य देवसेन ( 8वीं शती) ने कहा है कि बुद्ध मुनि पिहितास्रव के बड़े विद्वान शिष्य थे। इनका नाम उन्होंने बुद्धकीर्ति रखा था। पिहितास्रव पार्श्वनाथ की परम्प के संघ के मुनि थे। कुछ समय बाद बुद्ध ने कच्चा मांस और मरी हुई मछलियाँ खाना शुरू कर दीं और गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए तथा अपने निजी धर्म का यह कहकर प्रचार किया कि इस प्रकार का भोजन करने में कोई हानि नहीं है । 169
यद्यपि उपर्युक्त तथ्य की किसी बौद्ध ग्रन्थ में स्वीकृति नहीं है, तथापि बुद्ध की 6 वर्ष की तपस्या के विवरण से इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता कि वे जैन सिद्धान्तों से प्रभावित थे। इस बात की भी सम्भावना है कि बुद्ध का मांसाहार के प्रति दृष्टिकोण तथा मानवीय व्यवहारों पर जैनों का कठोर जहाँ नियन्त्रण आदि ने बुद्ध को एक नया धर्म चलाने हेतु प्रेरित किया हो, कि अत्यधिक आत्मनियंत्रण को व्यर्थ सिद्ध किया गया है।
दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में चातुर्याम संवर का निगण्ठनातपुत्त के उपदेशों के अङ्ग के रूप में जो उल्लेख किया गया है, वहीं सही उल्लेख नहीं है। चातुर्याम संवर पार्श्वनाथ का है, निगण्ठनात पुत्त का नहीं है। पार्श्वनाथ के चार व्रतों का निगठनातपुत्त ने संशोधन किया। उन्होंने चार व्रतों के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का नाम अलग जोड़ा। इस प्रकार निगण्ठनातपुत्त ने पंचयाम धर्म चलाया | 170 बौद्ध लोग इस नवीनीकरण से बेखबर थे। उन्होंने पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर को निमण्टनातपुत्त का समझा। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि कुशील, जिसे परिग्रह से पृथक् किया गया था, जिसे पालि में
166 वहीं 102
167 हरिषेणकृत बृहत्कथाकीश पृ. 200
168 करकण्डुचिरड पृ. 44-69
169 दर्शनसार 69 170 ठाणांग 4/1 (टीका)
కోటి 30 అట్ట్ట్ట్!టోట