Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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LATESTASTERSTATISesesiressesreyeseSTAN प्रकृतियों का उच्छेद कर पार्श्व प्रभु ने श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन कमों को पूर्ण रूप से ध्वस्त करके निर्बाध रूप से ऊर्ध्वगमन किया।
इस प्रकार कलिमलरहित जिनवर ने शिवपट (मोक्ष) प्राप्त किया और वे सिद्ध, बुद्ध एवं शुद्ध अरूपी शरीर के धारक हुए। अष्टगुणों से समृद्ध चैतन्य सिद्ध होकर उन्होंने शाश्वत सुखरूपी धन प्राप्त कर लिया। वहाँ उनकी अरूपी देह अन्तिम लौकिक देह से आकार में किञ्चित कन (कम) तथा तेजोमय अवस्था में स्थित हो गई। उस सिद्भशिला पर तनुवातवलय के अन्तिम भाग में चौरासी लाख सिर भिड़े हुए हैं। वे सिद्ध अनन्त गुणों के ईश्वर होते है। पाचप्रभु ने शुद्ध आत्म स्वभाव रूप, त्रियोग रहिन निरंजन एवं दोषरहित निर्वाण पद प्राप्त किया। उनके साथ अन्य छत्तीस मुनि भी सुखपूर्वक अजर-अमर होकर स्थित हो गये।
जिनवर का निर्वाण जानकर अनिन्द्य इन्द्र सुरवृन्द सहित आया। उस वीर ने विक्रियाऋद्धि से मायामय धीर शरीर बनाया और उसे सिंहासन पर विराजमान किया। पुनः अष्ट प्रकार से पूजा की जो सभी के हृदयों को अति मनोज्ञ लगी। गोशीर्ष प्रमुख देवदार, श्रीखण्ड और नाना प्रकार के काष्ठ मिलाकर उसने शय्या (चिता) निर्मित की ओर उस पर तत्काल ही पार्श्व जिनेन्द्र का वह मायामयी शरीर रखा। जब देवगण उसकी तीन प्रदक्षिणायें कर प्रणाम करके समीप में खड़े थे, तभी अग्नि कुमारों ने पार्थ के चरणों में प्रणाम करके उनके शीर्ष-किरीट के आगे जाकर चिता प्रज्ज्वलित कर दी, जिससे आकाश का मार्ग अवरुद्ध हो गया और जग है जिनवर के "मोक्षगमन" को जान लिया।
सम्पूर्ण भुवन को क्षुब्ध करने वाले अनेक सूर्यों के निनादपूर्वक यह शक्र उस प्रशंसाकारक भस्म को ग्रहण करके अपने सिर पर रखकर क्षीरसमुद्र को गया। वहाँ भस्म को क्षेपणकर इन्द्र वापिस आया और श्रीगणधर को प्रणाम करके अपनी भक्ति के अनुसार अन्तिम श्रेष्ठ कल्याणक करके स्वर्ग को चला गया।
श्री स्वयम्भू गणधर भरतक्षेत्र में धर्म-अधर्म की युक्ति प्रकाशित करके मोक्ष को प्राप्त हुआ तथा जो परमज्ञानी अन्य मुनीश्वर थे, उनमें से कोई तो अपने तप के प्रभाव से शाश्वतपुरी को गये और कोई अहमिन्द्र हो गये। प्रभावती कान्ता भी शुद्ध चित्त होकर अपने शरीर को त्यागकर अच्युत स्वर्ग में गयौं। वामादेवी भी वहीं पर उत्तम देव हुईं। वहाँ से चयकर दोनों देव उसी क्रम से शिवपद को पायेंगे।