Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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उपसर्ग निवारित होने पर गुणस्थानों का क्रमिक विकास कर शेष कर्म प्रकृतियों का उच्छेद कर चैत्रमास के पवित्र कृष्णपक्ष चतुर्थी के दिन केवल ज्ञान प्राप्त किया, जिससे उनके ज्ञान में समस्त लोक और अलोक स्पष्ट दिखाई देने लगे। पार्श्व की केवल्य प्राप्ति को जानकर इन्द्र ने आकर उनकी स्तुति की और कुबेर को आदेश दिया कि "प्रभु पार्श्व के लिए यथोचित सभाङगण (समवशरण ) तैयार करो। यह सब देकर भयभीत सा कमठ भी वहाँ से भाग
गया।
कुबेर ने चारों दिशाओं में ध्वजा पताकाओं से युक्त मणिवेदियों तथा मान स्तम्भ से युक्त, दुर्नय का भञ्ज, मिथ्यात्व का नाशक चन्द्रविमान के समान वर्तुलाकार समवसरण का निर्माण किया। उसी समवसरण के बीचों बीच गन्धुकुटी में अष्टप्रातिहार्यों से युक्त भगवान विराजमान थे। समवसरण बारह कोठों से युक्त था जिनमें क्रमश: प्रथम में मुनि एवं गणधर द्वितीय में कल्पवासी देवों की सुन्दर अप्परायें, तृतीय में व्रतधारी महिलायें चतुर्थ में ज्योतिषी देवों की स्त्रियों, पञ्चम में व्यन्तर देवों की नारियाँ, कष्ठ में नागनारियां, सम में भवनवासी देव, अष्टम में मधुर वाणी से युक्त किन्नरगण एव नवम् में चन्द्र एवं सूर्य नामक ज्योतिषी गण, दशम में शुभ मन वाले ज्योतिषी देव, ग्यारहवें में राजागण और बारहवें कोठे में शुभदृष्टि से युक्त तिर्यञ्च स्थित थे, समवरण के चारों ओर 400 यूति प्रमाण क्षेत्र में सुभिक्ष था।
आकाश में स्थिर जिन भगवान के चार घातिया कर्मों के घात के कारण दस अतिशय प्रकट हुए और देवों के द्वारा भी चौदह अतिशय किए गए।
समवसरण में सर्वप्रथम तो सौधर्म का आगमन हुआ, उसकी जिन स्तुति के बाद राजा स्वयम्भू भी सेना सहित आया और गुणानुवाद के अनन्तर अत्यन्त संवेग के कारण उसने तपभार ( मुनिपद) धारण किया और ज्ञान का धारक प्रथम गणधर हुआ। प्रभावती भी श्रेष्ठ (प्रमुख) आर्यिका बनी।
शक्र के भय से कमठ नाम का वह देव भी अपना सिर झुकाकर जिनेन्द्रदेव की शरण में आया और बोला "नित्य, निरंजन तथा सभी जीवों का हित करने वाले हे पार्श्व जिन, मेरी रक्षा कीजिए। हे देव! मुझ पापी ने चिरकाल तक जो कुछ किया है, वह अत्यन्त घना अज्ञानान्धकार मेरे विनय भाव से और आपके प्रसाद से मिथ्या होवे ""
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