Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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अर्ककीर्ति ने वस्त्राभूषण भेंट किए और अपनी कन्या प्रभावती से विवाह करने हेतु प्रार्थना की। पार्श्वप्रभु ने इसकी स्वीकृति दे दी।
'कुशस्थल में निवास करते हुए दूसरे दिन पावं ने नागरिकों को वन में जाते हुए देखकर अपने मामा अर्ककोति से इसका कारण पूछा। तब अर्ककीर्ति द्वारा यह बताए जाने पर कि तापसों का एक संघ वन में रहकर कठिन पञ्चाग्नि तप करता है, उन्हीं की वन्दना हेतु ये लोग जा रहे हैं। तब दूसरे दिन पार्श्वप्रभु जी अपने मामा अर्ककीर्ति एवं अन्य सेवकों के साथ वहाँ गए। वहाँ उन्होंने एक तापस को देखा. जो पञ्चाग्नि तप कर रहा था, लोग उसकी वन्दना आदि कर रहे थे। यह देखकर पार्श्व ने कहा कि जो स्वयं ही संसार के दखों को नष्ट नहीं कर सकता उसको भक्ति बयां करते हो? यह सुनकर (कमट नामक) तापस अत्यधिक कुद्ध हुआ और बोला कि हे नर श्रेष्ठ ! अप्रिय क्यों बोलते हो? कमठ की वात सुनकर पार्श्व ने पूछा कि बताओ, तुम्हारा गुरु मरकर कहाँ उत्पन्न हुआ है? तब कमठ ने कहा कि इसे प्रत्यक्ष कौन जान सकता है? तुम ज्ञान में बड़े दक्ष दिखाई दे रहे हो, अत: तुम्ही बताओ। तब पाश्वं ने जलती हुई लकड़ी की
ओर इशारा करके कहा कि वह गुरु मरकर वृक्ष को कोटर में दपीला साँप हुआ है, क्या जलते हुए को नहीं देखते? वृक्ष फाड़कर तू प्रत्यक्ष ही देख ले। तब कमठ ने उस काष्ठ को फाड़ा तो उसमें अर्द्धदग्ध सर्पयुगल को सिर धुनते हुए पाया। तब लोगों ने तापस की हँसी उड़ाई । तब वह भारी लज्जित हो कुद्ध हो गया। पार्श्व ने भी दयाई चित्त हो उस समयुगल के कान में पवित्र मंत्र सुनाया। उसे सुनकर वह सपंयुगल अपना शरीर त्यागकर भवनवासी देव हो गया। उस युगल में से काला साँप तो धरणेन्द्र हुआ और दूसरा साँप वहीं पद्मावती देवी हुई। तापस भी मन में क्रोध धारणकर तत्क्षण मरकर संवर नामक ज्योतिषो देव हुआ।
सर्पयुगल को प्राणरहित देखकर पार्श्वजिन "संसार में जीवों के लिए मृत्यु से त्राण नहीं है। ऐसा जानकर वैराग्योन्मुख हो अनित्य, अशरण, संसार, एक, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, निर्जरा, धर्म, लोक, बोधिदुर्लभ आदि बारह भावनाओं का चिन्तवन करने लगे।
जब जिनेश्वर पार्श्व यह सोच ही रहे थे कि मैं संसार के दुखों को छोड़कर व्रत भार को ग्रहण करूँगा। तभी पञ्चम स्वर्ग में निवास करने वाले देवों ने आकर