Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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दुखों का क्षय करने वाले ये पञ्चाणुव्रत कहे गये हैं। पुनः तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत सुनो, जो कि शाश्वत सुख प्रदान करने वाले हैं। दिशाओंविदिशाओं का प्रत्याख्यान, मन का निरोध एवं प्रतिदिन प्रात:काल में नियम ग्रहण करना। पाप बंध के कारण भूत कार्यों से विरक्ति, हिंसक उपकरणों का न देना और न लेना। अपने मन को स्थिर करके भोगों और उपभोगों की संख्या सीमित करना क्योंकि इनसे संवर बढ़ता है और संसार रूपी वृक्ष जल जाता है।
देश की सीमा का निधारण करना, मन को स्थिर करके आत्म ध्यान रूप सामायिक करना, आरम्भादि हिंसा का त्याग कर प्रोषधोपवास करना, सन्पात्रों को आहार देने रूप अतिथिसंविभाग व्रत का पालन; ये चार शिक्षाव्रत कहे गये
हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। अनछूना जल न तो स्वयं पीना चाहिए और न दूसरों को पिलाना चाहिये क्योंकि दो घड़ी वाले जल में सम्मूर्छन जीव होते हैं। जुआ, मांसाहार सुसेवन, वेश्या, शिकार, गोरी और कुशील; ये सात व्यसन छोड़ देने चाहिए, क्योंकि इनको करने वाला इस लोक और परलोक में निन्दा तथा पाप का भागी होता है।
इस प्रकार श्रावक के व्रतों को सुनकर तथा त्रियोग विशुद्धि करके राजा अर्ककीर्ति ने सम्यक्त्यव प्राप्त किया। उसने ज्ञानसम्पन्न गुरु को प्रणाम किया और कमठ को निकट ही बैठा देखकर पूछा कि "इस दुष्ट पापी ने किस कारण से पार्श्वप्रभु पर उपसर्ग किया? भव्यजनों को बोधित करने के लिए सूर्य के समान हे गणधर उसका कारण मुझसे कहिये ! "अर्ककीर्ति के इस प्रश्न को सुनकर गणधर ने जिन भगवान के मुख से निर्गत वाणी सुनकर उसके सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए कहा कि- प्रथम जिनेन्द्र द्वारा कथित सर्वाकाश अनन्तानन्त रूप में प्रकाशित है। उसके मध्य में तीन लोक हैं, जो असंख्य प्रदेशों से विशिष्ट हैं, अकृत्रिम हैं, स्वतः सिद्ध हैं प्रदेशों से विशिष्ट हैं, अकृत्रिम हैं, स्वतः सिद्ध हैं और प्रसिद्ध हैं, न कोई उसका हरण कर सकता है, न धारण और न निर्माण । घनवातत्रलय, तनुवातन्त्रलय एवं घनोदधिवातवलय पर आधारित हैं। सारा लोक जीवाजीवों से भरा है। उन सभी का पिण्ड जिन भगवान ने बीस-बीस हजार योजन प्रमाण ऊपर ऊपर कहा है। ऊर्ध्वं प्रदेश में क्रमशः हीन-हीन हैं तथा लोक के शिखर पर वे क्षीण हो जाते हैं। लोक शिखर पर क्रमशः दो कोस, एक कोस एवं 1575 धनुष प्रमाण हैं। तीनों ऊर्ध्व प्रदेशों में यह पिण्ड विशेष रूप से sssssss అsssss
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