Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
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exesxesxestore.४५४४xxsxs अज्ञान अवस्थाओं से आप कैसे छुटकारा पा सकते हैं और ज्ञान की अवस्थाओं का उत्कर्ष कैसे कर सकते हैं। उनसे निषेधात्मक उत्तर प्राप्त कर बुद्ध ने कहा था 175 :
वे निर्ग्रन्थ, जिन्हें बुद्ध ने ऋषिगिरि काल शिला पर कृच्छ्र तप करते हुए देखा था, पूर्व पम्प के पके होना चाहिए पूर्ण जैन परम्परा यह मानती हैं कि जैन तीर्थंकर सर्वज्ञ हुए हैं, इसके अतिरिक्त वे अन्यों की सर्वज्ञता का निषेध करते रहे हैं। 'भगवती सूत्र' में कहा है कि पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायियों ने निगण्ठनातपुत्त को तब तक तीर्थंकर स्वीकार नहीं किया, जब तक वह सिद्ध नहीं हो गया कि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। 176
'मज्झिमनिकाय' में दीघनख का उल्लेख आता है, जो तीन प्रकार के सिद्धान्तों को मानता था 177 :
1. सब्वं मे खमति (मैं सब (विचारों) से सहमत हूँ)
2. सब्बं मे न खमति ( मैं सब ( विचारों) से सहमत नहीं हूँ)
३. एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे न खमति ( में कुछ विचारों से सहमत हूँ और दूसरे विचारों से सहमत नहीं हूँ)
बुद्ध दीधनख के विचारों की विभिन्न प्रकार से आलोचना करते हैं और समस्या के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हैं। दीघनख के विचार स्याद्वाद के भङ्ग: हैं और प्रथम तीन भङ्गों का इस प्रकार प्रतिनिधित्व करते हैं।
सब्बं मे खमति
स्यादस्ति । सब्वं मे न खमति स्यान्नास्ति ।
एकच्चं मे खमति एकच्चं मे न खमति स्वादस्तिनास्ति ।
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समस्या यह विचार करने की हैं कि दोघनख किसी विचारधारा से सम्बन्धित था। मज्झिम निकाय की टीका के अनुसार वह उच्छेदवाद 178 के विचारों का था, जो कि बुद्धघोष की दृष्टि से स्याद्वाद का भाग है। वह संजय के परिव्राजकों के मत का हो सकता है, जो कि पार्श्वनाथ की परम्परा के थे
175 जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिट्रैचर, पृ. 148
176 वही पृ. 150
177 मज्झिम निकाय 178 मज्झिमनिकाय
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अद्भुकथा
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