Book Title: Parshvanath Charitra Ek Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Surendrakumar Jain
Publisher: Digambar Jain Atishay Kshetra Mandir
View full book text
________________
जोड़कर उन्होंने उनके चरण युगल में प्रणाम किया90 और फिर उपसर्ग को दूर करने के लिए कमलासन का निर्माण किया और पार्श्वप्रभु को उस पर विराजमान किया। सात फणों का छत्राकार बनाया और जिन भगवान के शीर्ष पर उसे मण्डलाकार स्थित कर दिया। इस प्रकार फणीश्वर जब पार्श्व के शरीर की रक्षा कर रहा था, उस समय पद्मावती अपने प्रिंच में आसान होकर वहीं स्थिर थी। उसे देखकर संवरदेव कुपित हो गया और दुगुना-तिगुना उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया। उसने पुनः पत्थरों के ढेर बरसाये और बहुत धुलि और बालकण प्रकट किये 91 जैसे-जैसे उस पापी एवं दुष्ट कमठ ने उपसर्ग किए, वैसे-वैसे नागेश ने अपने उठाए हुए फण से उन सभी को क्षणमात्र में ही निरस्त कर दिया92 पार्श्व का छद्मस्थ काल :
जिन दीक्षा के पश्चात् केवलज्ञान की उत्पत्ति तक के मध्य के समय को छद्मस्थकाल कहते हैं।
'तिलोयपण्णत्ती' में पार्श्व का छद्मस्थकाल चार मास93 और 'कल्पसूत्र' में 83 दिन 4 की अवधि का बताया गया है छद्मस्थकाल के विषय में दिगम्बराचार्यो/ग्रन्थकारों ने 'तिलोयपण्णत्ती' का और श्वेताम्बरों ने कल्पसूत्र का अनुसरण किया है। केवलज्ञान की प्राप्ति, तिथि और स्थान :
पार्श्व को चैत्र कृष्णा चतुर्थी के पूर्वाह्नकाल में विशाखा नक्षत्र के रहते शक्रपुर में केवलज्ञान हुआ. ऐसा 'तिलोयपण्णत्ती' में उल्लिखित है।95
महाकवि रइथू ने केवल्योपलब्धि का विस्तृत वर्णन इस प्रकार किया है।
"धरणेन्द्र के फणिमण्डल के द्वारा कमठ के उपसर्ग के निवारित होने पर पार्श्व जिनेन्द्र निश्चल एवं नासाग्रदृष्टि से स्थिर हो गये। तब उन्होंने उन
90 वही, घता 60 91 रइधू : पास. 4/11 92 जिहँ जिहे कम्म? दु?, उत्सग्गाई पउँजियई ।
जिहँ-तिहँ णाएसँ ट्ठिय-सीसैं-खणि णिरत्थ सयल कियई। 93 तिलोयपणत्ती 4:678 94 कल्पसूत्र 158 95 तिलोयपण्णत्ती 4/700
- वही, घत्ता - 62
.