Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( २० ) लगकर वह कर्म निकाचित हो जाये तो उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता है परन्तु जिस स्वरूप में निकाचित बंध हुआ हो या बाद में निकाचित हुआ हो उसी रूप में भोगने के बाद ही वह कर्म क्षय को प्राप्त होता है ।
यद्यपि पहले से ही निकाचित बंधे हुए अथवा बाद में निकाचित हुए कर्म में भी आठ करण में से किसी भी करण द्वारा किसी भी प्रकार का फेरफार नहीं होता है किन्तु जो कर्म जिस रीति से निकाचित हुआ हो, वह कर्म उस रीति से ही भोगना पड़ता है, यह शास्त्रीय कथन है, लेकिन श्रेणिगत् अध्यवसायों के द्वारा अर्थात उस प्रकार के शुक्लध्यान या धर्मध्यान द्वारा निकाचित कर्म भी बिना भोगे क्षय हो जाते हैं ऐसा शास्त्र में अपवाद रूप विशिष्ट सिद्धान्त है। जिससे कभी भी निद्धत्त या निकाचित हुए जो कोई कम सत्ता में होते हैं वे अपने अपूर्वकरण तक अथवा अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान तक निद्धत्त और निकाचित रूप में सत्ता में होते हैं, परन्तु अपने अनिवृत्तिकरण से अथवा अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान के प्रथम समय से किसी भी कर्म का कोई भी भाग निद्धत्त या निकाचित रूप में होता ही नहीं है । तात्पर्य यह है कि आयु के बिना सत्तागत सर्वकर्म भोगे बिना भी क्षय हों, वैसे हो जाते हैं । ___ संक्रमण आदि उपशमना पर्यन्त पाँच करणों का आशय सुगम होने से उनके लिये विशेष संकेत की आवश्यकता नहीं रह जाती है ।
द्रव्यकर्म की अपेक्षा बंध, उदय और सत्ता यह तीन अवस्थायें मुख्य हैं जिनका बंधविधि नामक पांचवें अधिकार में विस्तार से वर्णन किया जा चुका है और भावकर्म की दृष्टि से बन्धनकरण आदि आठ करण मुख्य हैं जिनका छठे, सातवें, आठवें और नौवें इन चार भागों में विवेचन किया गया है। इस छठे भाग में बन्धनकरण का निरूपण किया गया है। विषय परिचय के रूप में जिसकी संक्षिप्त रूपरेखा यहाँ प्रस्तुत करते हैं।