Book Title: Panchsangraha Part 06
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
( १६ ) इस प्रकार कर्मों में बंध के समय और बंध होने के अनन्तर अध्यवसायों द्वारा कैसी स्थिति बनती है यह आठ करणों का स्वरूप समझने से भली भाँति जान सकते हैं। ___ बंधकाल में अध्यवसायों द्वारा आत्मा कर्मबंध तीन प्रकार से करता है
१. सामान्य बंधनकरण के अध्यवसायों से बंधे हुए कर्म पर अमुक काल के बाद संक्रमण आदि सात करणों में से यदि किसी भी करण का असर न हो तो उसमें किसी भी प्रकार का फेरफार नहीं होता है । अर्थात् बंध के समय जितने काल, जिस रीति से जितना फल देने रूप स्वभाव नियत हुआ ह. उसी प्रकार से उदय में आता है और यदि किसी करण का असर हो जाये तो उसमें फेरफार हो जाता है अथवा वे प्रकृतियाँ अन्यथा रूप में फल देने वाली बन जाती हैं।
२. निद्धत्त प्रकार के अध्यवसायों द्वारा जो कर्म जिस रूप में बंधा हो, उसी रूप में भोगना पड़ता है। मात्र ऐसे अध्यवसायों से बँधे कर्म की स्थिति और रस में वृद्धि या हानि हो सकती है। ऐसे बंध को निद्धत्तबंध कहते हैं।
३. जिसके फल-भोग में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो सके ऐसे बंध को निकाचित बंध कहते हैं । इस प्रकार के कर्मबंध में कोई भी करण लागू नहीं होने से किसी भी प्रकार का फेरफार नहीं होता है।
निद्धत्त अध्यवसायों द्वारा बंधे हुए कर्म में स्थिति और रस में वृद्धि करने वाले उद्वर्तना और घटाने वाले अपवर्तना यह दो करण प्रवर्तित हो सकते हैं, अन्य कोई करण लागू नहीं होते हैं। निकाचना में तो उद्वर्तना और अपवर्तना यह दो करण भी कार्यकारी नहीं होते हैं । निकाचन अध्यवसाय द्वारा बंध समय में जितनी स्थिति और जितने रस वाला एवं निश्चित फल देने आदि स्वरूप वाला जो कर्म बंधा हो उस बंध के बाद और पहले बंधन या निधत्ति करण से बंधे हुए होने पर भी बाद में उसमें तीव्र अध्यवसाय रूप निकाचना करण