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" “ तन्वानं स्वकलाकलापमधिकं वर्यार्जवालंकृतं,
लक्ष्मीशनटीव यं श्रितवती प्र ेङ्खद् गुणाध्यासितम् । रङ्गान्नोत्तरणाभिलाषमकरोद या (यो) वर्ण्यतामागता (तः), पल्लीपाल इति प्रसिद्ध महिमा वंशोऽस्ति सोऽयं भुवि ।"
भावार्थ:- अपने अधिक कला-कलाप को विस्तारने वाले, श्रेष्ठ श्रार्जव सरलता से अलंकृत, तथा श्रेष्ठ गुणों से विभूषित जिस वंश को लक्ष्मी, वंश-नटीकी तरह आश्रित होकर, रङ्ग से उतरने का अभिलाष नहीं करती है, इससे जो वर्णन करने योग्य हुआ है - वैसा पृथ्वी में प्रसिद्ध महिमा वाला यह पल्लीवाल वंश हैं ।
सुप्रसिद्ध त्रिषष्टिशलाका पुरुष - चरित ( अजितनाथ से शीतलनाथ पर्यन्त पर्व २-३ ) की ताडपत्रीय प्रति, जो पट्टन ( गुजरात ) के संघवीपाडा के ग्रन्थ भण्डार में विद्यमान है, उस पुस्तक के अन्त में २१ श्लोक वाली प्रशस्ति है जो पट्टन भंडार की ग्रन्थ-सूची ( गा०
० सि० नं० ७६, पृ० १३८ - १४० ) में हमने दर्शाई है । उसका प्रथम श्लोक ऊपर दिखलाया है । वि० सम्वत् १३०३ उसमें स्पष्ट सूचित किया है ।
उस वंश के सोही के वंशजो में मकासुन्दरी और भाव सुन्दरी जैन श्वेताम्बर, साध्वियां हुई थीं, जिन्होंने कीर्तिश्री गणिनी की चरणाराधना की थी ( उनकी शिष्याएँ बनी थीं । )
कुल प्रभ गुरु का विशुद्ध उपदेश सुनकर, उस वंश के धर्म निष्ठ सद् गृहस्थ श्रीपाल ने माता-पिता के सुकृत के लिए उपर्युक्त पुस्तक लिखवाया था, और विक्रम संवत् १३०३ में उस कुल प्रभसूरिके पट्टतिलक नरेश्वरसूरि से व्याख्यान कराया था । यह पुस्तक उस वर्ष में का० शु० १० के दिन भृगुकच्छ ( भरुच ) में ठ0 सउधर ने लिखा था । ( ह )
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