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१७२ खास कर तो जैनाचार्यों का मरुधर भूमि में प्रवेश हुआ और उन्होंने दुर्व्यसन सेवित जनता को जैनधर्म में दीक्षित करना प्रारम्भ किया। तब से ही उन स्वार्थ प्रिय ब्राह्मणों के प्रासन कांपने लग गये थे और उन क्षत्रियों एवं वैश्यों से जैनधर्म स्वीकार करने वाले अलग हो गये तब से ही जातियों की उत्पत्ति होनी प्रारम्भ हुई थी। इसका समय विक्रम पूर्व चारसौ वर्षों के आस-पास का था और यह क्रम विक्रम की आठवीं-नौवीं शताब्दी तक चलता ही रहा तथा इन मूल जातियों के अन्दर शाखा प्रतिशाखा तो बट वृक्ष की भांति निकलती हो गई जब इन जातियों का विस्तार सर्वत्र फैल गया तब नये जैन बनाने वालों की अलग-अलग जातियां नहीं बनाकर पूर्व जातियों में शामिल करते गये । जिसमें भी अधिक उदारता उपकेश वंश की ही थी कि नये जैन बनाकर उपकेश वंश में ही मिलाते गये । ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो पालीवाल और पल्लीवाल जाति का गौरव कुछ कम नहीं है प्राचीन ऐतिहासिक साधनों से पाया जाता है. कि पुराने जमाने में इस पाली का नाम फेफावती, मलिहका, पालिका आदि कई नाम थे और कई नरेशों ने इस स्थान पर राज्य भी किया था । पालीनगर एक समय जैनों का मरिणभद्र महावीर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध था। इतिहास के मध्यकाल का समय पाली नगरी के लिये बहुत महत्व का था। विक्रम की वारहवीं शताब्दी के कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठानों के शिलालेख तथा प्रतिष्टा कराने वाले जैन श्वेताम्वर प्राचार्यों
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