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उन्नीसवीं शताब्दी पर्यंत वीरमपुर समृद्ध एवं विशाल नगर रहा है। इस शताब्दी के अन्त में मालाशाह के एक वंशज नानक शाह ने राजकुमार के व्यवहार से रुष्ठ होकर वीरम पुर का त्याग करने का विचार किया। इस उद्देश्य की पूर्ति में उसने जैसलमेर तीर्थ के लिये एक संघ यात्रा करने का प्रायोजन रचा और उस बहाने वह २२०० जैन घर और ४००० जैनेतर घरों के परिवारों के सहित जैसलमेर तीर्थ की ओर चला
और वे सर्व वहीं बस गये और लौटे नहीं। वीरमपुर की समृद्धि एवं शोभा इस संघ यात्रा के निष्काशन के साथ ही लुप्त हो गई और वीरमपुर कुछ ही वर्षों में उजड़ गया था । और फिर प्राबाद न हुअा। लेकिन तीर्थ के कारण आज भी वीरमपुर नाकोड़ा प्रसिद्ध है और कई सहस्त्र यात्रियों के प्रतिवर्ष के आवागमन के कारण अपनी पूर्व समृद्धि को चरितार्थ कर रहा है । इस तीर्थ की उन्नति एवं प्रसिद्धि में पल्लीवाल गच्छ और ज्ञाति दोनों का सराहनीय योग रहा है; यह ही विशेष उल्लेखनीय है।
श्री कोरटा तीर्थ -इस तीर्थ पर भी पल्लीवाल बन्धुओं की सेवाओं के सम्बन्ध में विशेष सुना जाता है। परन्तु इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका है।
श्री प्रवतीर्थ-इस तीर्थ के श्री नेमिनाथ नामक लूणसिंह वसही में दण्डनायक तेजपाल की तत्त्वावधानता में ही पल्लीवाल ज्ञातीय नेमड़ और उसके परिवार ने जो-जो शिल्पकार्य करवाये उनका विशुद्ध परिचय नेमड़ के प्रकरण में दिया जा चुका है।
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