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लिया था । अध्ययन प्रेम इनका अदभुत था । अध्ययन के साथ २ यह अपने पिता एवं काका की दूकान संबंधो कार्यों में भी छोटी वय से सहायता करने लग गये थे। ये छीटें छापा करते थे। छीटें भी छापते जाते थे और ग्रन्थ भी पढ़ते जाते थे। हाथरस से यह . अलीगढ़ आकर व्यापार करने लगे थे। लोग कहते थे कि यह अलीगढ़ में छीटें भी छापते जाते थे और साथ ही गोमंटसार आदि ग्रन्थों का अध्ययन-वाचन भी करते जाते थे। ऐसा सुना जाता है कि बुद्धि इनकी इतनी तीब्र थी कि ये एक घंटा में ५०-६० श्लोक कंठस्थ कर लेते थे। हाथरस, अलीगढ़ की जैन समाज में ये अपनी कुशाग्र बुद्धि अध्ययन शीलता, धर्मरुचि, एवं अनेक अन्य सद्गुणों के कारण बहुत अधिक लोकप्रिय प्रसिद्ध हो गये थे।
वि० सं० १८८२-८३ में मथुरा निवासी राजा लक्ष्मणदासजी जैन सी० आई० ई० के पिता श्रेष्ठिवर्य मनीराम जी और पंडित चंपालाल जी हाथरस पाये, वहाँ उन्होंने कविवर की अत्यन्त प्रसिद्धि सुनी तथा मन्दिर में उनको गोमटार का तल्लीनतापूर्वक अध्ययन करते देख कर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे प्राप को मथुरा ले गये,परन्तु वहां अाप अधिक काल पर्यन्त नहीं ठहरे। पुनः सासनी अथवा लश्कर (ग्वालियर) में आकर रहने लगे। इनके पुत्र टीकाराम जी इनकी मृत्यु के समय एवं पश्चात् भी लश्कर में व्यापार-धंधा करते रहे है । इनके टीकारामजी से छोटा एक पुत्र और था । वह लघुवय में ही अपनी प्यारी पत्नी एवं एक पुत्री को छोड़ कर स्वर्ग सिधार गया था। आपको अपने कनिष्ठ
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