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भावार्थ-पल्लीपाल वाला वंश को इसमें सुन्दर वंश-वृक्ष की उपमा देकर, उसकी साथ तुलना की है। जैसे वंश-वृक्ष ऊंचा, सरल, सुवर्ण से मनोहर होता है, · शाखाओं से विशाल शोभा युक्त होता है, छाया वाला होता है, बड़े भारी शैल (पर्वत ) के ऊपर स्थान प्राप्त करने वाला होता है, पर्व श्री से अलंकृत होता है सद् वृत्तपन से युक्त होता है, सुन्दर पत्रों से गौरव वाला होता है, मोतियों से मनोहर और पवित्र होता है, इस तरह पल्लीवाल वंश भी ऊंचा है, सरल है, सुवर्ण से सुन्दर है, शाखानों से विशाल कान्तिवाला, छाया वाला है, बड़े भारी पर्वत पर जिसने स्थान मन्दिर प्राप्त किया है, जो पर्व-लक्ष्मी से अलंकृत हैं, सदाचरण से युक्त है, सुन्दर पत्रों से गौरव वाला, मोतियों से मनोहर और पवित्र होने से प्रसिद्धि को पाया है।
इस पल्लीवाल वंश में चन्द्र नामक यशस्वी सद्गृहस्थ श्वेताम्बर जैन हो गया, जिसने श्री पार्श्वजिनेश्वर का मन्दिर कराया था । उसकी पत्नी का नाम माइ, पुत्रों का नाम १ साभड, २ सामंत था।' उनकी बहिन श्रीमती ने गुरोपदेश से संसार की असारता समझकर जयसिंहसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की थी, उसकी बहिन शाँतूने विशाल आचारांग-सूत्र ( नियुक्ति के साथ ) लिखवाकर श्रीमती गणिनी को दिया था, उसने वह पुस्तक व्याख्या के लिए श्री धर्मघोष सूरि को अर्पण किया था । ७ श्लोक वाली यह प्रशस्ति; पत्तनस्थ प्राच्य जैन भाण्डागारीय ग्रन्थ सूची ( गा० प्रो० सि० नं० ७६ पृ० १०८.१०६ ) में हमने दर्शाई है। इसका अवतरण, जैन पुस्तक-प्रशस्ति-संग्रह (पृ० ५५-५६ में हुआ है।
इसका जिकर स्व० लोढाजी ने इस इतिहास में पृ. ७१ में किया है । शायद वे पत्तन भा० ग्रन्थसूची को न देख सके ।
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