________________
६२
व्याकरण बनाया । श्रीदेवेन्द्रसूरि द्वारा रचित नव्य कर्म ग्रंथों का श्री धर्मघोषसूरि (धर्मकीर्ति ) के साथ रह कर सम्पादन किया । विद्यानन्द व्याकरण एवं नव्य-कर्म ग्रंथों का सम्पादन ये दो कार्य ही इनकी उद्भट विद्वता का स्पष्ट परिचय करा देने को पर्याप्त है | वि० सं - १३२३ ( क्वचित १३०४ ) में इन दोनों भ्राताओं के तप, तेज संयम एवं शास्त्राभ्यास विद्वत्तादि से प्रसन्न होकर श्री विद्यानन्द मुनि को सूरि पद और धर्मकीर्ति को उपाध्याय पद प्रदान किया गया । वि० सं १३२७ में नव्य कर्म ग्रंथ कर्त्ता श्री देवेन्द्र सूरि का मालवा में स्वर्गवास हुआ। उस दिन के ठीक तेरह दिवस पश्चात् श्री विद्यानन्द सूरि भी स्वर्गवासी हुए । और उपा ध्याय धर्मकीर्ति धर्मघोषसूरि नाम से पट्ट पर बिराजे । धर्मघोष सूरि-ये प्राचार्य चौदहवीं शताब्दी के महान् प्रखर ज्योतिर्धर आचार्यों में से थे । सम्राट, राजा, सामन्त, संघपति नगर श्रेष्ठ एवं विद्वान् गण इनका अत्यन्त प्रादर करते थे । अणहिल्लपुर पत्तन के गुर्जर सम्राटों पर, माण्डव के शासकों पर इनका अच्छा प्रभाव था और उनसे गाढ़ मैत्री थो । गुर्जर मालव आदि धर्म एवं साहित्य के प्रसिद्ध क्षेत्रों में इनका बड़ा सम्मान था । इन्होंने देव पत्तन में कर्पाद नामक यक्ष को प्रतिबोध देकर उसको दृढ़ जैन धर्मी अधिष्ठायक बनाया था। उज्जैन में मोहन बेली से भ्रमित अपने एक शिष्य को मंत्रबल से स्वस्थ किया था । एक समय
(१) प्र० सं०४८, पृ० ४३, ५० पृ० ४४, (२) देखिये 'नेमड़ और उसके वंशजो के धर्म कार्य,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org