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इनकी संख्या अधिक होने से पाली की समस्त कृषियोज्य भूमि पर इनका ही अधिकार था । अन्य ज्ञातियों को भूमि नहीं मिल सकती थी । पालो समृद्ध एवं व्यापारी नगर होने से राज्य को उसकी सुरक्षा, शासन-व्यवस्था के संबंध में भारी व्यय करना पड़ता था। निदान राज्य ने इन ब्राह्मणों के अधिकार में जो अधिक भूमि थो वह और जो इन्होंने बल-प्रयोग से नियम विरुद्ध अधिकार में कर रखी थी वह तथा निस्संतान मरने वालों की जो भूमि थी वह-जब राज्य में लेना प्रारंभ किया तो यह लोग राज्य से एक दम रुष्ट होकर पाली त्याग करने पर उतारू हो गये । उधर वैश्य भी सोधा और दक्षिणा के भार से अपने को हल्का करना चाहते थे । दोनों ओर से निराशा उमड़ती देखकरवि० की सतरहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में ये पाली का त्याग कर के निकल पड़े। दक्षिण पच्छिम के प्रान्तों में जा कर वसे । बीकानेर, जैसलमेर पश्चिम में और डूंगरपुर, उदयपुर बांसवाड़ा प्रतापगढ़ तथा रतलाम सैलाना, सीतामऊ और धार-निमाड़ के राज्य, प्रान्तों में ये फैल कर बसगये । मेवाड़ में ये लोग नन्दवाना कहलाते हैं। कुछ लोग धीरे धीरे कलकत्ता तक भी पहुँचे और . वहाँ ये बोहरा कहे जाते हैं । पल्लीवाल वैश्यों ने भी इनके साथ
और आगे-पीछे निकट में पाली का त्याग किया, उस सम्बंध में संबंधित प्रकरणों में कहा जा चुका है। - आज पाली में पालीवाल ब्राह्मणों के लगभग ५०० पांच सौ घर वस रहे हैं । इनका वहां मोहल्ला भी है । यह प्रतिज्ञा करके
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