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व्यय करके स्वधर्मी बंधुओं का भारी आदर-सत्कार किया था वह संघपति पद से अलंकृत हुआ था।
श्रे० लाहड़ नायिकी, राहड़ को द्वितीय भार्यां, का पुत्र था। यह शास्त्र-श्रवण में बड़ी रुचि रखता था और ग्रंथों की प्रतियां लिखवाने में अपने द्रव्य का व्यय करना सफल मानता था । ऊपर के प्रत्येक तीर्थ सेवा एवं साहित्य-सेवा कार्य में श्रे० लाहड़ का नाम अवश्य आया है । इससे स्पष्ट है कि वह उस समय के महान् जिनेश्वर भक्तों में, ज्ञानोंपाशकों में, गुरुभक्तों में अग्रणी था।
श्रेष्ठि नेमड़ के गौरवशाली वंश का वृक्ष
(आगे के पृष्ठ पर देखिये )
१. अ० प्रा० ज० सं० सं० लेखांङ्क ३५०, ३५५. २. जै० पु० प्र० से० प्र० २६ पृ० ३२. ३. श्री प्रशस्ति संग्रह प्रथम भाग ( ताड़पत्रीय ) ता० प्र० ५०.
पृ० ४४.
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