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थे। लिच्छिवी भेर समता चाहिये ।
स्वयं एक गणराज्य था किन्तु उस समय के गणराज्य और आज के गणतंत्र में कुछ
उस समय के गणराज्यों में अवश्य राजा नहीं होता था, परन्तु राज्यशासन राज्य के मुखिया द्वारा होता था। आज की भांति बालिग मताधिकार की प्रणाली से चुने हुए शासनकर्त्ताओं के बारे में कोई प्रमाण नहीं मिलता । ये गणराज्य संख्या में उस समय भी कम थे पर छोटे छोटे थे। समय युद्ध और संघर्ष का था। आजानि छोटे २ राज्यों की अपेक्षा बड़े २ संगठित र स्थापित करने की चिता में
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राष्ट्रहित के लिये ही था। सिकन्दर के समकालीन भारतीय राजनीतिक आयें चाणक्य ने जब गएराज्यों में शिथिलता देखो, तो उसने स्वीकार किया कि 'यह जमाना गणराज्यों का नहीं है बल्कि भारत में एक संगठित राज्यकी स्थापना होनी चाहिये, और उनकी उत्तरी भारत के गणराज्य चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा समाप्त कर दिये गये। एक विशाल साम्राज्यको स्थापना की गई। उसके बाद तत्र राज्य हो दिखाई देने लगे। यदि कुछ गणराज्य ईसा की तीसरी चौथी शताब्दी में मिलते हैं ।
एकतन्त्र राज्य स्थापना से यदि यह हम समझने लगे कि 'राजा' को मनमाने अधिकार थे और वह परमात्मा का 'प्रतिनिधि माना जाता था तो हमारी यही भृत होगी। जिस काल का हम विवेचन कर रहे हैं उस समय 'राजन' के अविकार तथा कर्त्तव्यनियत थे । इन कर्त्तव्यों का पालन न करने पर वह राउत किया जा सकता था। और राजा का चुनाव योग्यता की कसौटी पर कसा जाता था धर्म गुप्त राज्य के अंत तक 'राजन' का बहुत निखरा हुआ रूप मिलता है । और एक तरह से 'जनतंत्र' प्रणाली की साक्षात्कार होता है।
श्री० चौधरी ने भारतीय इतिहास की भूमिका मे उस युग के शासनतन्त्र के विषय में लिखा है - "इस समय ( ई० को पहली शताब्दी ) में सरकारें लोकतन्त्रीय व सुसंगठित थीं। यह सही है कि तुम समग्र राजा तथा मंत्रियों के नियन्त्र रखने के लिये कोई केन्द्रीय धारा सभा ( पार्लियामेंट ) नहीं थी। किन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि कुछ समय से शासनतंत्र का विकेन्द्रीयकरण बहुत कुछ हो चुका था । और केन्द्रका बहुत सा काम प्रान्तीय शासन द्वारा होता था । भावों में केन्द्रीय अफसरों पर लोक सभाओं द्वारा नियन्त्रण क्या जाता था और सरकारी भूमि तक भी बिना लोक सभाओं की स्वीकृति के श्रेची नहीं जा सकती थी। माम शासन एक दम लोकतंत्रीय था, जहां शासन की सारी ग्यबस्था ग्राम पंचायतों द्वारा होती थी ।
केन्द्रीय शासनतंत्र पर नियंत्रण करने के लिये भी भार्यषालय के अनुसार 'जनपद सभाएँ होती थीं और राजा को इनके मत का आदर करना पड़ता था। आर्थिक संकट के समय समाहर्ता प्रयोजन बताकर पौरजानपद से धन मांगे। राजा पौरजानपद से पाचना करे | "
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नियम-निर्माण के लिये धारासभाओं का यदि कोई प्रमाण नहीं मिलता तो इससे वह नहीं समझना चाहिये कि राजा जो नियम चाहे रच्छा से बना ये । यद्यपि आज के समान लोकतंत्रीय धारासभायें नहीं थी, तथापि नियम-निर्माण का अधिकार राजा के हाथ में नहीं था। समाजयवस्था, धार्मिकव्यवस्था तथा • राजकीय व्यवस्था के आधारभूत सिद्धान्त रान उपे हुए, निःश्वार्थी तथा लोककल्याणा-कर्ता विद्वान ऋषि
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