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[१०] स्थिरताका समय, युद्धशिक्षा, शत्र के नगर में प्रविष्ट हानेका अवसर, कूटयुद्ध और तूष्णीय द्धका स्वरूप, अकेले सेनाध्यक्षसे हानि, ऋणा राजा, चोरतास लाभ, युद्धस विमुखकी हानि, यु द्धार्थ प्रस्थित राजा व पर्ववनिवासी गुप्तका कऽय, सेनाके चोग्य स्थान, अयोग्यस हानि ष राम-कर्तव्य ३६९-४०४ ३१ विवाह-समुदेश
४०६४१. कामसेवनकी योग्यताका समय,विवाहका परिणाम,लक्षण, नाम और देव-आदि पार विवाहों के स्वरूप, सनकी श्रेष्ठता, गान्धर्व-प्रादि विवाहोंके लक्षण और उनकी उत्तमता आदि, कन्याके दूषण, पाणिग्रहण-शिथिलताका खोटा असर, नया बधूकी प्रचण्डताका कारण, उसके द्वारा तिरस्कार और हेष-पात्र पुरुष एवं उसके द्वारा प्राप्त होने योग्य प्रणय (प्रेम), विवाह योग्य गुण, उनके न होनेसे हानि कन्या के विषयम, पुनर्विवाहमें स्मृतिकारांका अभिमत, विवाह सबन्ध, स्त्रीसे लाभ, गृह-स्वरूप कुलवधूकी रक्षा, वश्याओंका त्याग और उनके कुलागत कार्य ।
४०६-४१० ३२ प्रकीर्णक समूद्देश
४११-४२५ ___ प्रकीर्णक व राजाका लक्षण, विरक्त-अनुरक्तके चित्र, काग्यके गुण-दोष, कवियोंके भेद, कवि होने से लाभ, संगीत (गीत, नृत्य तथा पाच) गुण, महापुरुष, निन्ध गृहस्थ, तात्कालिक सुखाभिलाषियोंके कार्य, दान-विचार, कर्जा देने के कटु फन । उसको लेने वाले के स्नेहादिको भवधि, सत्यासत्य निर्णय, पापियोंके दुष्कर्म, भाग्याधीन वस्तुए', रतिकालीन पुरुष-वचनोंको मीमांसा, दाम्पत्य प्रेमकी अवधि, युद्ध में पराजयका कारग, स्त्रीको सुस्ती रखनेसे लाय, जौकिक विनय-तत्परताको सोमा, अनिष्ट प्रतीकार, स्त्रियांक प्रति मनुष्य कर्तग्य, साधारण व्यक्तिसे भी प्रयोजन, लेख व युद्ध
४११-४२. स्वामी व दाताका स्वरूप, राजा, परदेश, बन्धुहीन तथा दरिद्रके विषयमें, निकट विनाश वालेको थुद्धि, पुण्यवान, भाग्यकी अनुकूलता, कर्मचांडाल, पत्रोंके भेद, दाय भागके नियम, मतिपरिचय, सेवक अपराधका दुष्परिणाम, महत्ताका दूषणा, रतिक्रिया मंत्र साधन व माहारमें प्रवृत्त हुए पुरुषके प्रति मनुष्य कर्तव्य, पशुओंके प्रति वर्ताव, मतवाले हाथी पर आरोहण व भत्यधिक अश्व (घोडा) क्रीदासे हानि, ण न चुकाने वाले की श्रालाचना, अत्यधिक व्याधि-प्रस्त शरीरकी मीमांसा, साधु जीवन युक्त महापुरुष, लक्ष्मी-मीमांसा, राजाभोंका प्रेम पात्र व नीष पुरुष- ४१५-४२२ मनुष्यकी महत्ता, महापुरुषों की मादर्श प्रकृति, सत असन संगका असर, प्रयोजनापीका कर्त्तम्म धनाढ्य के प्रति निर्धन-कर्तव्य, सत्पुरुषकी सेवाका परिणाम, प्रयोजनार्थीको दोष-दष्ट न रखनेका संकेत, पित्त प्रसन्न करने वाली वस्तुएं, राजाके प्रति मनुष्य कसैव्य, विधार पूर्वक कार्य न करने व भूण पाकी रखने से हानि, नये सेवकको प्रकृति, प्रतिका निर्वाह, निर्धन अवस्थामें नदारता, प्रयोजनार्णका कार्य तथा पृथक किये हुए सेवकका कर्तव्य
४२२-४२५ ३३-ग्रन्धकार प्रशस्ति, अन्त्यमंगल तथा प्रात्म-परिचय
४२६-४२५
नोट-दिपत्र ग्रन्थके अंतम देखिये। --सम्पादक