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[ मूलाचारे धिक्-धिक भवतु मोहं-मोहः प्रलयं गच्छतु । येन मोहेन हृदयस्थेन' मोहितो मूढ़: सन न विबध्यते तन्न जानाति जिनवचनं परमागमं । कि विशिष्टं ? हितशिवसुखकारणं मार्ग--एकांतवादिपरि. कल्पितसुखनिमित्तमार्गविपरीतं येन मोहेन हृदयस्थेन न विबुध्यते तं मोहं धिग्भवन्त्विति ॥७३२।।
रागद्वेषो कुत्सयन्नाह
जिणवयण सद्दहाणो वि तिव्वमसुहगदिपावयं कुणइ'।
अभिभूदो जेहिं सदा पितेसि रागदोसाणं ॥७३३।। याभ्यां रागद्वेषाभ्यामभिभूतः कथितोऽयं जीवो जिनवचनं श्रद्दधानोऽपि तत्वरुचिसहितोऽप्यशुभगतिहेतुकं तीव्र पापं करोति श्रेणिकादिवत्, धिग्भवतस्तो रागद्वेषो, इति दर्शने सत्यपि रागद्वेषो पुरुषस्य पापं जनयत इति तयोनिराकरणे संभ्रमः कार्य इति ॥७३३॥ विषयाणां दुष्टत्वमाड्
अणिहुदमणसा एदे इंदियविसया णिगे हिदुं दुक्खं ।
मंतोसहिहीणेण व दुट्ठा आसीविसा सप्पा ।।७३४॥ तानि कुत्सयन्नाह
धित्त सिमिदियाणं जेसि वसेदो दु पावमज्जणिय ।
पावदि पावविवागं दुक्खमणंतं भवगदिसु ॥७३॥ को नहीं समझता है ।।७३२।।
प्राचारवृत्ति-इस मोह को धिक्कार हो ! अर्थात् यह मोह प्रलय को प्राप्त हो जावे, हृदय में विद्यमान जिस के द्वारा मूढ़ हुआ यह जीव जिन आगम को नहीं जानता है। जिनागम जो कि हितरूप मोक्षसुख का कारण है तथा एकान्तवादियों द्वारा परिकल्पित सुख के कारणरूप मार्ग से विपरीत है। अर्थात् जिस मोह के द्वारा जीव मोक्षमार्ग को नहीं पाता है उस मोह को धिक्कार !
राग-द्वेष की निन्दा करते हुए कहते हैं
गाथार्थ-जिनके द्वारा पीड़ित हुआ जीव जिनवचन का श्रद्धान करते हुए भी तीव्र अशुभगति कारक पाप करता है उन राग और द्वेष को सदा धिक्कार हो ! ॥७३३॥
___आचारवृत्ति-जिन राग-द्वेष के द्वारा पीड़ित हुआ यह जीव तत्त्वों की रुचिरूप सम्यग्दर्शन से युक्त होता हआ भी श्रेणिक आदि के समान अशभ गति के लिए कारण ऐसे तीव्र पापों को करता है, ऐसे इन राग-द्वेषों को धिक्कार हो । तात्पर्य यह है कि जीव के सम्यग्दर्शन के होने पर भी ये राग-द्वेष पाप को उत्पन्न करते हैं। अतः इनका निराकरण करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
इन्द्रिय-विषयों की दुष्टता बतलाते हुए उनकी निन्दा करते हैं
गाथार्थ-चंचल मन से इन इन्द्रिय-विषयों का निग्रह करना कठिन है । जैसे कि मन्त्र और औषधि के बिना दुष्ट आशीविष जातिवाले सो को वश करना कठिन है ।।७३४॥
उन इन्द्रियों को धिक्कार हो कि जिनके वश से पाप का अर्जन करके यह जीव चारों गतियों में पाप के फलरूप अनन्त दुःख को प्राप्त होता है ।।७३५।। १. हृदयस्थितेन क. २. कुणदि क० ३. भवतिषु
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