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[ मूलाचारे
तेषामंगानां पूर्वाणां चार्थग्रहणसमर्था यथैवोपाध्यायः प्रतिपादयत्यर्थ तथैवाविनष्टं गाँति प्रतिपद्यते ग्रहणसमर्थाः, गृहीतमर्थं कालांतरेण न विस्मरन्तीति धारणसमर्थाः । चतुर्विधबुद्धिसंपन्ना इत्युक्ताः के ते इत्याशंकायामाह; पदानुसारिणः, बीजबुद्धयः, संभिन्न बुद्धयः, कोष्ठबुद्धयश्च । द्वादशांगचतुर्दशपूर्वमध्ये एक पदं प्राप्य तदनुसारेण सर्वश्रुतं बुध्यंते पादानुसारिणः । तथा सर्वश्रुतमध्ये एक बीजं प्रधानाक्षरादिकं संप्राप्य सर्वमवबुध्यन्ते बीजबुद्धयः । तथा चक्रवर्तिस्कन्धावारमध्ये वदत्तमार्याश्लोकमात्राद्विपददंडकादिकमनेकभेदभिन्नं सर्वैः पठितं गेयविशेषादिकं च स्वरादिकं च यच्छ तं यस्मिन् यस्मिन् येन येन पठितं' तत्सर्वं तस्मिन तस्मिन्काले तस्य तस्याविनष्टं ये कथयति ते संभिन्नबुद्धयः । तथा कोष्ठागारे संकरव्यतिकररहितानि नानाप्रकाराणि बीजानि बहुकालेनाऽपि न विनश्यति न संकीर्यते च यथा तथा येषां श्रुतानि पदवर्णवाक्यादीनि बहुकाले गते तेनैव प्रकारेणाविनष्टार्यान्यन्यूनाधिकानि संपूर्णानि संतिष्ठते ते कोष्ठबुद्धयः । श्रुतसागरपारगाः सर्वश्रुतबुद्धपरमार्था अवधिमनःपर्ययज्ञानिनः सप्तद्धिसम्पन्ना धीरा इति ॥३४॥
__ आचारवृत्ति—जो मुनि उन अंग और पूर्वो के अर्थ को ग्रहण करने में समर्थ हैं, अर्थात् उपाध्याय गुरु जिस प्रकार से अर्थ का प्रतिपादन करते हैं उसी प्रकार से जो पूर्णतया उस अर्थ को ग्रहण करते हैं---समझ लेते हैं वे मुनि अर्थ-ग्रहण समर्थ कहलाते हैं। उसी प्रकार से ग्रहण किए हुए अर्थ को जो कालान्तर में नहीं भूलते हैं, वे धारण-समर्थ हैं।
'चतुर्विधबुद्धि संपन्न', ऐसा पूर्व गाथा को टीका में कहा है तो वे कौन-कौन-सी बुद्धि से सम्पन्न हैं ?
पदानुसारो बुद्धि से सम्पन्न हैं, बीजबुद्धि से सम्पन्न हैं, संभिन्न बुद्धि से सम्पन्न हैं और कोष्ठ बुद्धि से सम्पन्न हैं।
जो मुनि द्वादशांग या चतुर्दश पूर्व में से किसी एक पद को प्राप्त करके उसके अनुसार सर्व श्रुत का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं इस तरह वे पदानुसारी ऋद्धि वाले कहलाते हैं।
तथा जो सर्वश्रुत में से एक बीजरूप प्रधान अक्षर आदि को प्राप्त करके सर्व श्रुत जान लेते हैं वे बोजबुद्धि ऋद्धिवाले हैं।
चक्रवर्ती के स्कन्धावार के मध्य जो वृत्त आर्या मात्रा द्विपद या दण्डक आदि नानाभेद प्रभेदों सहित पढ़े गये हों, गेय विशेष आदि रूप से जो गाये गये हों और स्वर आदि जो भी वहाँ उत्पन्न हुए हों, अर्थात् उस चक्रवर्ती के कटक में अनेक मनुष्यों व तिर्यंचों के जो भी शब्द प्रकट हुए हों उन सभी के द्वारा उत्पन्न हुए शब्दों को मुनि ने सुना। पुनः जिस-जिस काल में जिस-जिस के द्वारा जो बोला गया है उस उस काल में उस उसके उन सर्व शब्दों को जो पूर्णरूप से कह देते वे सम्भिन्नबुद्धि ऋद्धिवाले हैं।
जस प्रकार धान्य के कोठे-भण्डार में संकर व्यतिकर रहित अनेक प्रकार के बीज बहत काल तक भी नष्ट नहीं होते हैं, न मिल जाते हैं। उसी तरह से जिनके श्रत-पद-वाक्य आदि बहुत काल हो जाने पर भी उसी प्रकार से विनष्ट न होकर, न्यूनाधिक भी न होकर, सम्पूर्णरूप से ज्यों-के-त्यों बद्धिरूपी कोठे में ठहरते हैं वे कोष्ठबद्ध ऋद्धिवाले मनि हैं।
जिन्होंने सर्वश्रुत के ज्ञान से परमार्थ को जान लिया है, अवधिमनःपर्ययज्ञानी हैं सप्तद्धियों से सम्पन्न हैं और धीर हैं ऐसे मुनि ही शास्त्रों के अर्थों को ग्रहण करने और धारण करने में समर्थ होते हैं यह अभिप्राय है।
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