Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 416
________________ ३५२ ] [ मूलाचारे - घाती । सातासातचतुरायुः सर्वनामप्रकृत्युच्चैर्नीचैर्गोत्राणामुत्कृष्टाद्यनुभागबन्धः घातिनां प्रतिभागो देशघाती, घातिविनाशे स्वकार्यकरणसामर्थ्याभावात् । एता अघातिप्रकृतयः पुण्यपापसंज्ञाः । शेषाः पुनः पूर्वोक्ता घातिसंज्ञा: पापा भवन्तीति । अशुभप्रकृतीनां चत्वारि स्थानानि निबकांजीरविषकालकूटानीति, शुभप्रकृतीनां च चत्वारि स्थानानि गुडखण्डशर्करामृतानीति । मोहनीयान्तरायवर्जितानां षण्णां कर्मणामुत्कृष्टानु भागबन्धः चतुःस्थानिको, जघन्यानुभागबन्धो द्विस्यानिकः, शेषः द्वित्रिचतुःस्थानिकः । मोहनीयान्तराययोरुत्कृष्टानुभागबन्धश्चतुःस्थानिको जघन्यानु भागबन्ध एकस्थानिकः, शेषा एकद्वित्रिचतुः स्थानिकाः । चतुर्ज्ञानावरणत्रिदर्शनावरणपुंवेदचतुः संज्वलनपंचांतरायाणां सप्तदश प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागबन्धश्चतुःस्थानिको जघन्यानुभागबन्ध एकस्थानिकः । शेषाः सर्वेऽपि केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरणसातासात मिथ्यात्वद्वादशकषायाष्टनोकषायचतुरायुः सर्वनाम प्रकृत्युच्चैर्नीचैर्गोत्राणामुत्कृष्टानुभागबन्धश्चतुःस्थानिको जघन्यो द्विस्थानिकः, शेषो द्वित्रिचतुःस्थानिकः । घातिनामेकस्थानं नास्ति । पुंवेदरहितानां नोकषायाणामेकस्थानं नास्ति, निम्बवदेकस्थानं, कांजीरवद् द्विस्थानं, विषवत् त्रिस्थानं, कालकूटवच् चतुःस्थानम् अशुभप्रकृतीनामेतत् । गुडवदेकस्थानं, खण्डवद् द्विस्थानं, शर्करावत् त्रिस्थानम्, अमृतवद् सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, नामकर्म की समस्त ६३ प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और नीचगोत्र - इनका उत्कृष्ट आदि अनुभाग घातिया के प्रतिभागरूप देशघाती है; क्योंकि घाती कर्मों का नाश हो जाने पर इनका अनुभाग अपने कार्य को करने की सामर्थ्य नहीं रखता है । इन अघाती प्रकृतियों के पुण्य और पाप ऐसे दो भेद होते हैं । पुनः पूर्वकथित घाति प्रकृतियाँ पापरूप ही होती हैं । अशुभ प्रकृतियों के चार स्थान हैं-नोम, कांजीर, विष और कालकूट । शुभ प्रकृतियों के भी चार स्थान हैं - गुड़, खांड, शर्करा और अमृत । मोहनीय और अन्तराय को छोड़कर शेष छह कर्मों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चार स्थान वाला होता है और इनका जघन्य अनुभागवन्ध दो स्थानरूप होता है। शेष - अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभागबन्ध दो, तीन और चार स्थानवाला है । मोहनीय और अन्तराय का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चार स्थानवाला है और जघन्य अनुभागबन्ध एक स्थानवाला है । शेष - अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभागबन्ध एक, दो, तीन और चार स्थानवाला भी होता है । चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पुंवेद, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इन सत्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चार स्थानवाला होता है और जघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक है । शेष दोनों का अर्थात अनुत्कृष्ट और अजघन्य का एक, दो, तीन व चार स्थानों का है । केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, संज्वलन के अतिरिक्त बारह कषाय, पुंवेद के अतिरिक्त आठ नोकषाय, चार आयु, नामकर्म की सभी प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और नीचगोत्र – इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक है और जघन्य द्विस्थानिक है । शेष अनुत्कृष्ट और अजघन्य अनुभागबन्ध दो, तीन और चार स्थानों वाला है । घातिया कर्मों में एकस्थानिक अनुभागबन्ध नहीं होता है । पुंवेदरहित आठ नोकषायों का भी एक स्थानिक अनुभागबन्ध नहीं है । नीम के समान एकस्थान अनुभागबन्ध, कांजीर के समान द्वि स्थान अनुभागबन्ध, विष के समान त्रिस्थान अनुभागबन्ध और कालकूट के समान चतुःस्थान अनुभागबन्ध होता है । ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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