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पर्याप्त्यधिकारः ]
वेदनीप देवगति व शरीरसं वसंतपं वशरीरबन्ध नषट्सस्यानत्र्यंगोपांगषट्संहननपंचवर्णद्विगन्धपंच रसाष्टस्पर्शदेवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यागुरुलघूपघात परघातोच्छ्वास द्विविहायोगत्यपर्याप्त स्थिरास्थिरशुभाशुभ-सुभगादुर्भगसुस्वदु.स्वरानादेयायशः कीर्ति-निमान - नोचैर्गोत्राणि एता द्वासप्ततिप्रकृतीः क्षपयति । ततोनन्तरं सोदयवेदनीयमनुष्यायुर्मनुष्यगतिपंचेन्द्रियजातिमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यत्र सबादरपर्याप्तोच्चैर्गोत्रप्रत्येक तीर्थ करनामादेययश:कीर्तिसंज्ञकास्त्रयोदश प्रकृतीश्चरमसमये क्षपयति । ततो द्रव्यरूपमोदारिकशरीरं त्यक्त्वा नीरजा निर्मल: सिद्धोनिर्लेपः सर्वद्वन्द्व रहितोऽनन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्यसमन्वितोऽक्षयो युगपत्सर्व द्रव्यपर्यायावभासकोऽनन्तगुणाधारः परमात्मा भवतीति ॥ १२४६ ॥ *
इति श्रीमदाचार्यवर्य वट्टकेरिप्रणीतमूलाचारे श्रीवसुनन्दिप्रणीतटीकासहिते द्वादशोऽधिकारः ॥ १२ ॥
इसीका विशेष कथन करते हैं- अयोग केवली भगवान अपने चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में उदयरहित वेदनीय, देवगति, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग. सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, निमान और नीचगोत्र इन बहत्तर प्रकृतियों का नाश करते हैं । इसके अनन्तर चरमसमय में उदयसहित वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, त्रस, बादर, पर्याप्त, उच्चगोत्र, प्रत्येकशरीर, तीर्थंकर नाम, आदेय और यशस्कीर्ति इन तेरह प्रकृतियों का क्षय करते हैं। इसके अनन्तर द्रव्यरूप औदारिक शरीर को छोड़कर नीरज, निर्मल, सिद्ध, निर्लेप, सर्वद्वन्द्वों से रहित, अनन्तज्ञान दर्शन सुख और वीर्य इन अनन्त चतुष्टयों से समन्वित, अक्षय, युगपत् सर्वद्रव्य और पर्यायों को अवभासित करनेवाले और अनन्तगुणों के आधारभूत परमात्मा हो जाते हैं ।
इति श्री वसुनन्दि आचार्य द्वारा प्रणीत टीका से सहित श्रीमान् आचार्यवर्य वट्टकेरि स्वामी प्रणीत मूलाचार में बारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥
* फलटन से प्रकाशित मूलाचार में अन्त में दो गाथाएं और हैं
एसो मे उबवेसो संखेवेण कहिदो जिणक्खादो ।
सम्मं भावेदव्वो वायव्वो सब्बजोवाणं ॥
अर्थ - जिनेद्रदेव द्वारा कथित यह उपदेश मैंने संक्षेप में कहा है । हे शिष्यगण ! वचन- काय की एकाग्रतापूर्वक इस उपदेश की भावना करो ओर इसे सभी जीवों को प्रदान करो ।
तुम
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दवूण सव्वजीवे दमिदूण या इंवियाणि तह पंच । अट्ठविहकम्मरहिया णिव्वाणमणुत्तरं जाथ ||
अर्थ - हे मुनिगण ! तुम सभी जोवों पर दया करके तथा स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, आठ प्रकार के कर्मों से रहित होकर सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पद प्राप्त करो।
इति श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचिते मूलाचारे एकादशः पर्याप्तत्यधिकारः ।
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लोग मन
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