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प्रशस्तिपाठ: ]
यद्यत्र क्वाप्यवद्यं स्यादर्थे पाठे मयादृतम् । तदा शोध्य बुधैर्वाच्यमनन्तः शब्दवारिधिः ।। ७० ।।
इति श्रीभव्यकुमुदचन्द्रस्य सूरे: श्रीजिनचन्द्रस्य पावांभोरुहषट्पदेन पंडितश्री मेधाविसंज्ञेन काव्यबन्धेन विरचिता
प्रशस्ता प्रशस्तिः समाप्ता ।
(इति पर्यन्त: ख-ग- पुस्तकीयः पाठः सदृशः । )
ख- पुस्तकीयपाठ:- संवत् १८८७ का पोषमासे कृष्णपक्षतिथौ ६ रविवासरे लिषाइतं पंडितसरूपचन्द तत्शिष्य सदासुषलिप्यकृतं म्हात्मा संभुराम सवाईजैपुरमध्ये । सं. १८८७ ऋषिवसुसिद्धीन्दयुते पोषमासे कृष्णपक्षे दशमीगुरुवासरे अनेकशोभाशोभिते श्रीसपादजयपुराह्वये नगरे श्रीमन्महाराजाधिराज राजेन्द्र श्रीसवाई जयसिंह जिद्राज्य प्रवर्तमाने नानाविधवादित्रशोभिते विचित्रवेदिकान्विते मं
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ग- पुस्तकीयपाठ :- लिषितं भारतीपुरवास्तव्य पंडित पुरुषोत्तमपुत्र धाराधरसंज्ञेन ॥ छ ॥ शुभं भूयात् लेखक पाठकयोः ॥ छ ॥ छ ॥ श्रीः ॥ छ ॥ शुभं भवतु ॥ छ ॥
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यदि मैंने इस प्रशस्ति के किसी पाठ या अर्थ में दोष का आदर किया है— कहीं त्रुटि की है तो ज्ञानी जनों को उसे शुद्ध कर वांचना चाहिए क्योंकि शब्द रूपी सागर अनन्त है— शब्दों का पार नहीं है ।
इस प्रकार भव्य जीव रूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए चन्द्रस्वरूप आचार्य जिनचन्द्र के चरणकमलों के भ्रमर मेघावी पण्डित के द्वारा काव्य रूप से विरचित यह प्रशस्त प्रशस्ति समाप्त हुई ।
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