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[ मूलाचारे
ततोऽन्तर्मुहूर्तेन क्रोधसंज्वलनं क्षपयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तेन मानसंज्वलनं क्षपयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तेन मायासंज्वलनं क्षपयति । ततोऽन्तर्मुहूत्तं गत्वा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानं प्रतिपद्यते । एतेषु सोऽपि सूक्ष्मसाम्परायमात्मनश्चरमसमये किट्टिकागतं सर्वं लोभसंज्वलनं क्षपयति । ततोऽनन्तरं क्षीणकषायो भवति । सोऽप्यन्तर्मुहूर्तं गमयित्वा आत्मनो द्विचरमसमये निद्राप्रचलासंज्ञके द्वे प्रकृती क्षपयति । ततोऽनन्तरं चरमसमये पंचज्ञानावरण चतुर्दर्शनावरणपंचान्तरायाख्याश्चतुर्दश प्रकृतीः क्षयपति । एतेषु त्रिषष्टिकर्मसु क्षीणेषु सयोगिजिनो भवति ।
।। १२४८ ।।
सयोगिकेवली भट्टारको न किंचिदपि कर्म क्षपयति ततः । क्रमेण विहृत्य योगनिरोधं कृत्वा अयोगिकेवली भवति स यत्कर्म क्षपयति तन्निरूपयन्नाह
तत्तोरालियदेहो णामा गोदं च केवली युगवं ।
आऊण वेदणीयं चदुहि खिविइत्तृ णीरओ होइ ॥ १२४६ ॥
तत ऊर्ध्वं अयोगिकेवली औदारिकशरीरं सनिःश्वास एवायं नामगोत्र कर्मणी आयुर्वेदनीयं च युगपत् क्षपयत्विा नीरजाः सिद्धो भवति । विशेषमाह -- अयोगिकेवली आत्मकालद्विचरमसमयेऽनुवम
अन्तर्मुहूर्त काल से क्रोधसंज्वलन का क्षय करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त काल से मानसंज्वलन का क्षय करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त से मायासंज्वलन का क्षय करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है ।
इस दश गुणस्थान में वह चरमसमय में किट्टिकागत सम्पूर्ण लोभसंज्वलन का क्षय कर देता है। इसके अन्तर वह क्षीणकषाय निर्ग्रन्थ हो जाता है । वहाँ पर भी वह अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत करके अपने इस बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों का क्षपण करता है । इसके बाद अन्तिम - चरमसमय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का विनाश करता है । इस प्रकार इन तेसठ कर्मप्रकृतियों के सर्वथा विनष्ट हो जाने पर वह मुनि सयोगी जिन केवली हो जाता है ।
भावार्थ - चतुर्थ, पंचम, छठे या सातवें इन में से किसी भी गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करके कोई भी जीव छठे गुणस्थान से सातवें में पहुँचकर, पुनः आठवें में प्रवेश कर क्षपक श्रेणी में आरोहण करके चारित्रमोह का क्षय करता हुआ दशवें में पूर्णतया मोह का विनाश करके, बारहवें में पहुँचकर शेष तीन घातिया और १६ अघातिया प्रकृतियों का ऐसे कुल सठ प्रकृतियों का विनाश करके केवलज्ञान को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। सयोग केवली भट्टारक कोई भी कर्म का क्षपण नहीं करते हैं, वे म से विहार करके योगनिरोध करके अयोगकेवली हो जाते हैं । वे जिन कर्मों का क्षपण करते हैं, उनका निरूपण करते हैं-
गाथार्थ -- इसके अनन्तर केवली भगवान् एक साथ औदारिक शरीर, नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन चारों कर्मों का क्षय करके कर्मरजरहित हो जाते हैं ।। १२४६ ॥
श्राचारवृत्ति - इसके पश्चात् वे अयोगकेवली भगवान निश्वास सहित औदारिक शरीर, नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय इन कर्मों का एक साथ क्षय करके रजरहित सिद्ध भगवान् हो जाते हैं ।
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