Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 414
________________ ३८.1 [ मूलाचारे सप्तदशभागा: पल्योपमासंख्यातभागहीनाः । अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानानां सागरोपमस्य चत्वार:सप्तभागाः पल्योपमासंख्यातभागहीना अष्टानां नोकषायाणां सागरोपमस्य द्वौसप्तभागो पल्योपमासंख्यातभागहीनो। नरकदेवायुषो दशवर्षसहस्राणि । तिर्यङ मनुष्यायुषोरन्तर्मुहत्तः। नरकगतिदेवगतिवक्रियिकशरीरांगोपांगनरकगतिप्रयोग्यानुपूर्व्य देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्याणां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागी पल्योपमासंख्यातभागहीनों आहाराहारांगोपांगतीर्थकराणां सागरोपमाणां कोटीकोट्योऽन्तःकोटीकोटी। शेषाणां सागरोपमस्य द्वी सप्तभागो पस्योपमासंख्यातभागहीनौ। सर्वत्र जघन्या स्थितिरिति संबन्धनीया। सर्वत्र चान्तमुहूर्तमाबाधा। आबाधोना कर्मस्थितिः, कर्मनिषेधकः । सर्वोऽयं जघन्यस्थितिबन्धः सामान्यापेक्षया संज्ञिपंचेन्द्रियस्यैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंशिपंचेन्द्रियाणां सर्वकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धः य एवोत्कृष्ट उक्तः स एव पल्योपमासंख्यातभागहीनो द्रष्टव्य इति ॥१२४५॥ अनुभागबन्धं निरूपयन्नाह कम्माणं जो दु रसो अज्झवसाणजणिद सुह असुहो वा। बंधो सो अणुभागो पदेसबंधो इमो होइ॥१२४६॥ कर्मणां ज्ञानावरणादीनां यस्तु रसः सोऽनुभवोऽध्यवसानैः परिणामर्जनितः, अध्यवसानजानतः। क्रोध है और पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान की सागर के सात भाग में से चार भाग ओर पल्योपम के असंख्यात भागहीन है । हास्य आदि आठ (पुरुषवेदरहित) नोकषायों की सागरोपम के सात भाग में से दो भाग और पल्योपम के असंख्यात भाग से हीन है। नरक आयु और देव आयु की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष है। तिर्यंच और मनुष्य की अन्तर्मुहूर्त है । नरकगति, देवगति, वैयिकशरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, नरकगति प्रायो देवगति प्रायोग्यानपर्व्य---इनकी सागर के सात भाग में से दो भाग और पल्योपम के असंख्यातभागहीन है । आहारक, आहारक-अंगोपांग और तीर्थंकर की जघन्य स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर है। शेष कर्मों को जघन्य स्थिति सागर के सात भाग में से दो भाग तथा पल्योपम के असंख्यातवें भागहीन है। सभी कर्मों के जघन्य स्थितिबन्ध की आबाधा अन्तमुहूर्त मात्र है। ___ यह जघन्य स्थिति बन्ध सामान्य की अपेक्षा से संज्ञिपंचेन्द्रिय की है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के सभी कर्मो का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा गया है वही पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन होकर जघन्य स्थितिबन्ध होता है ऐसा समझना। अब अनुभागबन्ध का निरूपण करते हैं गाथार्थ-कर्मों का परिणाम से उत्पन्न हुआ शुभ अथवा अशुभरूप रस अनुभाग बन्ध है। प्रदेशबन्ध आगे कहेंगे ॥१२४६॥ प्राचारवत्ति-ज्ञानावरण आदि कर्मों का परिणामों से होनेवाला जो रस-अनुभव है वह अनुभागबन्ध है । अर्थात् क्रोध-मान-माया-लोभ कषायों की तीव्रता आदि परिणामों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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