Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 412
________________ ३७८ ] सागरोपमकोटी कोट्यः । सर्वत्र यावंत्यः सागरोपमकोटी कोट्यस्तावंति वर्षशतान्याबाधा । आबाधा हीनकर्मस्थितिः कर्मनिषेधकः । येषां तु अन्तःकोटी कोट्यः स्थितिस्तेषामन्तर्मुहूर्त्त आबाधा | आयुषः पूर्वकोटी त्रिभाग उत्कृष्टाबाधा, आबाधोना कर्मस्थितिः, कर्मस्थितिकर्मनिषेधक इति । इयं संज्ञिपंचेन्द्रियस्योत्कृष्टा स्थितिरेकेन्द्रियस्य । पुनर्मिथ्यात्वस्योत्कृष्टः स्थितिबन्ध एकं सागरोपमम् । कषायाणां सप्त चत्वारो भागा, ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायसात वेदनीयानामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः सागरोपमस्य त्रयः सप्तमभागाः, नामगोत्रनोकषायाणां सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ । एवं शेषाणां त्रैराशिक क्रमेणै केन्द्रियस्योत्कृष्टा स्थितिः साध्या, तस्याः संदृष्टिरेवं १, ४/७३/७२/७ एवं द्वीन्द्रियाद्यसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्यन्तानामुत्कृष्टा स्थितिः साध्या । द्वीन्द्रियस्य मिथ्यात्वस्योत्कृष्टा स्थितिः पंचविंशतिः सागरोपमाणां त्रीन्द्रियस्य पंचाशत्, चतुरिन्द्रियस्य शतम् | असंज्ञिपंचेन्द्रियस्य सहस्रम् । तद्विभागेनैव शेषकर्मणामप्युत्कृष्टा स्थितिः साध्या त्रैराशिक क्रमेण । तेषां संदृष्टयः द्वीन्द्रियस्य मिथ्यात्वादीनां २५, १००/७, ७५/७, ५०/७; त्रीन्द्रियस्य मिथ्यात्वादीनां ५०, २००/७, १५०/७, १०० /७; कोड़ाकोड़ी सागर है । इन सभी कर्मों में जिस कर्म की जितने कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति है उसकर्म की उतने सौ वर्ष प्रमाण आबाधास्थिति है । वह आबाधाहीन कर्म-स्थिति प्रमाण कर्मों की निषेधक है । जितने काल की आबाधा है उतने काल तक कर्म उदय में नहीं आते हैं । जिन कर्मों की अन्तः • कोड़ाकोड़ो प्रमाण स्थिति है उनकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त मात्र है । आयुकर्म की उत्कृष्ट आबाधा पूर्व कोटी के त्रिभागप्रमाण है । अर्थात् उतने काल तक वह आयुकर्म उदय में नहीं आ सकता है । यहाँ तक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है । एकेन्द्रिय जीव के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागर है । कषायों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागर के सात भाग में से चार भाग प्रमाण है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और सातावेदनीय का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सागर के सात भाग में से तीन भाग प्रमाण है । नाम, गोत्र और कुछ नोकषायों का सागर के सात भाग में से दो भागप्रमाण है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीव के शेष कर्मों की भी उत्कृष्ट स्थिति वैराशिक के क्रम से निकाल लेना चाहिए | उसकी संदृष्टि इस प्रकार है- दो इन्द्रिय के - मिथ्यात्व १, कषाय ४/७ ज्ञानावरण ३ / ७, नामगोत्र २ / ७ । इसी तरह द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की उत्कृष्ट स्थिति निकाल लेना चाहिए । अर्थात् द्वीन्द्रिय जीव के मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागर प्रमाण है । त्रीन्द्रिय के पचास सागर, चतुरिन्द्रिय जीव के सौ सागर और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मिथ्यात्व उत्कृष्ट स्थिति हज़ार सागर प्रमाण है । की इन जीवों के शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति भी इस विभाग के द्वारा ही त्रैराशिक के म से जान लेनी चाहिए । अर्थात् मि० द्वीन्द्रिय जीव के श्रीन्द्रिय जीव के Jain Education International २५ ५० [ मूलाचारे काय १००/७ २०० /७ ज्ञानावरणादि ७५/७ १५०/७ For Private & Personal Use Only नाम - गोत्र ५०/७ १००/७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456