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[ मूलाचारे
त्रयाणां प्रथमानां ज्ञानावरणदर्शनाव रणवेदनीयानां सामीप्यात्साहचार्याद्वा सर्वेषां प्रथमत्वमन्तरायस्य च उत्कृष्टा स्थितिः सागरनाम्नां त्रिंशत्कोटी कोट्यो नाधिका। पंचानां ज्ञानावरणीयानां नवानां दर्शनावरणीयानां सातवेदनीयस्यासात वेदनीयस्य पंचान्तरायाणां चोत्कृष्टः स्थितिबन्धः स्फुटं त्रिशत्सागरोपमकोटीकोट्यः । एते कर्मरूपपुद्गला एतावता कालेन कर्मस्वरूपाभावे क्षयमुपव्रजंतीति ॥ १२४३ ॥
यथा
मोहस्स सर्त्तारं खलु बीसं णामस्स चेव गोदस्स । तेतीसमाउगाणं उवमाओ सायराणं 'तु ।। १२४४ ॥
मोहस्य मिध्यात्वस्य सागरोपमानां कोटीकोटीनां सप्ततिरुत्कृष्टा स्थितिः, नामगोत्रयोः कर्मचोरुकृष्टस्थितिः सागराणां कोटीकोटीनां विंशतिः पूर्वोक्तेन सागरनाम्नां कोटीकोटी इत्यनेन सम्बन्धः । आयुषः पुनः कोटीकोटीशब्देन नास्ति सम्बन्धः । तथानभिधानादागमे इत्यतः सागरशब्देनैव सम्बन्धः । कुतः पुनः ? सागरोपमग्रहणादायुष उत्कृष्ट स्थिति: उपमा सागराणां त्रयस्त्रिशत्स्थितेः सागरैस्त्रयस्त्रिशद्भिरुपमा ।
आचारवृत्ति - प्रथम तीन ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय (समीपता से अथवा साहचर्य से तीनों को प्रथमपना प्राप्त हो जाता है) और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी, सागरोपम है, इससे अधिक नहीं है । अर्थात् पाँचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, सातावेदनीय और असातावेदनीव तथा पांचों अन्तराय इन सबकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । तात्पर्य यह है कि ये कर्मरूप हुए पुद्गल इतने काल तक कर्म अवस्था में रहते हैं और इसके बाद कर्मस्वरूपता को छोड़कर निर्जी हो जाते हैं ।
शेष कर्मों की स्थिति कहते हैं
गाथार्थ - मोह की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम, नाम और गोत्र की बीस कोहाकोड़ी सागरोपम और बायु की तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ।। १२४४ ।।
आचारवृत्ति - मोह अर्थात् मिथ्यात्वकर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। नाम और गोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । पूर्वोक्त गाथा में कथित 'सागरनाम्नां कोटीकोट्यः' अर्थात् कोड़ाकोड़ी सागर वाक्य है उसका यहाँ तक सम्बन्ध कर लेना । पुनः आयु के साथ कोड़ाकोड़ी का सम्बन्ध नहीं करना है, क्योंकि आगम में सिद्धान्त ग्रन्थों में आयु के साथ कोड़ाकोड़ी का सम्बन्ध नहीं है अतः यहाँ सागर शब्द से ही सम्बन्ध करना है ।
आयु की उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम को कैसे लें ?
'उपमा सागराणां' इसी गाथा के उत्तरार्ध में है । उसी से ऐसा समझें कि आयु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम मात्र है ।
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उवसंतलीणजोगी उणवीससह रहियपयडीचं । वोससयं पयडिविणा जोगविहीणा हु बंबंति ॥
अर्थ - उपशान्तकषाय संयत, क्षीणकषाय संयत और योग केवलिजिन ये तीनों ही एक सौ उन्नीस प्रकृतियों से रहित शेष एक साताप्रकृति का ही बन्ध करते हैं । अयोगकेवलिजिन एक सौ बीस प्रकृतियों से यो रहित अबन्धक होते हैं ।
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