Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 409
________________ पर्याप्यधिकार: ] तत ऊवं वेदरहिता एकविंशतिप्रकृतीरनिवृत्ति द्वितीयभागे बध्नाति । तत: संज्वलनक्रोधरहिता विशतिप्रकृतीस्तृतीयभागे बध्नाति । ततः संज्वलनमानरहिता एकोनविंशतिप्रकृतीश्चतुर्थभागे बध्नाति । तत ऊध्वं मायारहिता अष्टादशप्रकृतीः पंचभागे बध्नाति। तत ऊर्ध्वं ता एवलोभरहिता:सप्तदशप्रकृती: सूक्ष्मसांपरायो बध्नाति। ज्ञानान्तरायदशकदर्शनवतुष्कोच्चैर्गोत्रयश.कोतिषोडशप्रकृतीर्मक्त्वकं सद्वेद्यं द्वितीयभागे सूक्ष्मसांपरायो बध्नाति। तत ऊध्वं सातवेदनीयाख्यामेकाम प्रकृतिमुपशान्तकषायक्षीणकषाययोगिकेवलिनो बध्नन्ति । अयोगकेवली अबन्धको न किंचित्कर्म बहनातीति ॥१२४२।। व्याख्यातः प्रकृतिबन्धविकल्पः, इदानी स्थितिबन्धविकल्पो वक्तव्यः, सा च स्थितिद्विविधोत्कृष्टा जघन्या च तत्र यासां कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः समाना तासां निर्देशार्थमुच्यते तिण्हं खलु पढमाणं उक्कस्सं अंतरायस्सेव। तीसं कोडाकोडी सायरणामाणमेव ठिदी ॥१२४३॥ अनिवृत्तिकरण के द्वितीय भाग में वही सयत पुवेदरहित इक्कीस का बन्ध करता है, तृतीय भाग में संज्वलन क्रोध रहित बीस प्रकृतियों का, चतुर्थ भाग में संज्वलन मान रहित उन्नीस प्रकृतियों का और पाँचवें भाग में संज्वलन माया रहित अठारह प्रकृतियों का बन्ध करता है। इसके ऊपर सूक्ष्मसाम्पराय मुनि लोभकषाय रहित इन्हीं सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करता है। वही सूक्ष्मसाम्पराय स यत अपने गुणस्थान के द्वितीय भाग में ज्ञानावरण की ५. अन्तराय की ५ दर्शनावरण को ४, उच्चगोत्र और यशःकीर्ति इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर मात्र एक सातावेदनीय का ही बन्ध करता है। इसके अनन्तर उपशान्तकषाय संयत, क्षीणकषायसंयत और सयोगकेवलिजिन एक सातावेदनीय काही बन्ध करते हैं। अयोगकेवलीजिन अबन्धक हैं, वे किंचित् मात्र भी कर्म का बन्ध नहीं करते हैं। प्रकृतिबन्ध के भेदों का व्याख्यान हुआ। अब स्थितिबन्ध के भेद कहना चाहिए। स्थिति के दो भेद हैं-उत्कृष्ट और जघन्य । उनमें से जिन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति समान है उनका कथन करते हैं गाथार्थ -आदि के तीन कर्म और अन्तरायकर्म इन चारों की तीस कोड़ा-कोडी सागर प्रमाण ही उत्कृष्ट स्थिति है ॥१२४३।। * फलटन से प्रकाशित मूलाचार में अप्रमत्त से लेकर अयोगी तक बन्धकी प्रकृतियां आगे दो गाथाओं में कही हैं जबकि इस संस्करण में यह विषय टीका में ले लिया गया है । एगट्ठी बासट्ठी अठणउदी तिण्णिसहिय सयरहियं । बंषंति अप्पमत्ता पुश्व णियट्ठी य सुहुमो य । अर्थ-अप्रमत्तसंयत इकसठ रहित शेष उनसठ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अपूर्वकरणसंयत बासठ प्रकृति रहित शेष अट्ठावन प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अनिवृत्तिकरण संयत अट्ठानवे प्रकृतियों को छोड़कर शेष बाईस प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और सूक्ष्म साम्पराय संयत एक-सौ-तीन प्रकृतियों को छोड़कर शेष सत्रह प्रकृतियां बांधते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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