Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 421
________________ पर्यायधिकारः ] [ ३८७ नवक बन्धमुपशमयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तं गत्वा अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्ञको क्रोधो क्रोधसंज्वलनं चिरन्तनसत्कर्मणा सह युगपदुपशमयति । ततः समयोने द्वे आवल्यो गत्वा क्रोधसंज्वलननवक-बन्धमुपशमयति । ततोऽन्तमुहूर्तं गत्वा अप्रत्याख्यान - प्रत्याख्यानमानी असंख्यातगुणश्रेण्या मानसंज्वलनं चिरन्तनसत्कर्मणा सह युगपदुपशमयति । ततः समयोने द्वे आवल्यो गत्वा मानसंज्वलननवक बन्धमुपशमयति । ततः प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या उपशमयन्नन्तर्मुहूर्तं गत्वा द्विप्रकारां मायां मायासंज्वलनं चिरन्तनसत्कर्मणा सह युगपदुपशमयति । ततो द्वे मावल्यौ समयोने गत्वा मायासंज्वलननव कबन्धमुपशयति । ततोऽन्तर्मुहूर्तं गत्वा द्विप्रकारं लोभ लोभसंज्वलनेन चिरन्तनसत्कर्मणा सह लोभवेदकाद्वा द्वितीयत्रिभागे सूक्ष्मां किट्टिकां मुक्त्वा शेषं बादरलोभं स्पर्द्धकगतं सर्वनवक अन्धोच्छिष्टावलिकवयंम् अनिवृत्तिचरमसमयनिवृत्तिरुपशमयति, नपुंसकवेदमादि कृत्वा यावल्लोभसंज्वलनम् एतेषामनिवृत्तेरुपशमकं भवति । ततोऽनन्तरसमये सूक्ष्म किट्टिकास्वरूपं वेदलोभं वेदयन् नष्टाऽनिवृत्तिसंज्ञो सूक्ष्मसाम्परायो भवति । ततश्चात्मनश्चरमसमये लोभसंज्वलनं सूक्ष्म किट्टिकास्वरूपं निःशेषमुपशमयति । तत उपशान्तकषायः वीतरागछद्मस्थो भवति । उदयोदीरणात्कर्षणोपकर्षणपर प्रकृतिसंक्रमणस्थित्यनुभागखण्डकघातविना स्थानमपि समन्नाम्नैष मोहनीयोपशमनविधिः । इति । बन्ध का उपशम करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान संज्ञक क्रोध का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन क्रोध का एक साथ उपशम कर देता है । पुनः एक समय कम दो आवली प्रमाण काल के व्यतीत हो जाने पर, क्रोधसंज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है । अनन्तर अन्तर्मुहूर्त के बाद, अप्रत्याख्यान - मान और प्रत्याख्यान - मान का एवं चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन - मान का असंख्यात गुणश्रेणी से एक साथ उपशम करता है । इसके बाद एक समय कम दो आवली काल के अनन्तर मान के संज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है । इसके बाद प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी के द्वारा अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर दो प्रकार I माया का और चिरन्तन सत्कर्म के साथ संज्वलन-माया का एक साथ उपशम कर देता है । पुनः एक समय कम दो आवली के बीत जाने पर माया संज्वलन के नवक बन्ध का उपशम करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद दो प्रकार के लोभ का और चिरन्तन सत्कर्म 'साथ संज्वलन लोभ का उपशम कर देता है । अथवा लोभवेदक से द्वितीय विभाग में जो सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ है उसे छोड़कर स्पर्द्धकगत सर्वबादर लोभ, जो कि सर्वनवक बन्ध की उच्छिष्टावलि से वर्जित है, का अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्त समय में यह जोव उपशम कर देता है। इस तरह नपुंसक वेद से लेकर लोभसंज्वलन तक इन प्रकृतियों का यह अनिवृत्तिकरण में उपशमक होता है । इसके अनन्तर सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ का अनुभव करता हुआ अनिवृत्तिसंज्ञक गुणस्थान से आगे बढ़कर भूक्ष्मसाम्पराय हो जाता है। यह जीव अपने इस गुणस्थान के चरमसमय में सूक्ष्म किट्टिका रूप संज्वलन लोभ को पूर्णतया उपशान्त कर देता है । तब उपशान्तकषाय गुणस्थान में वीतराग छद्मस्थ हो जाता है। उदय उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण, स्थित्यनुभागखण्ड घात के बिना यह स्थान अपने नाम के अनुरूप ही है । अर्थात् इसका उपशान्त नाम सार्थक है । यह मोहनीय कर्म के उपशमन की विधि कही गयी । भावार्थ - चतुर्थ, पंचम, छठे या सातवें इन चार गुणस्थानों में से किसी भी एक गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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